Sunday, September 9, 2018

शेखर जोशी के जन्मदिन पर विशेष


शेखर जोशी की कहानी-बदबूः कुछ नोट्स
विमलेश त्रिपाठी


1.      
बतौर एक कथाकार मैं कह सकता हूं कि एक कहानी के लिए पठनीयता सबसे जरूरी चीज होती है – और यह पठनीयता साधाराण भाषा और शैली से संभव नहीं होती बल्कि वह होती है पाठक के मन को स्पर्श करने की लेखकीय क्षमता से। शेखर जोशी की कहानियां इस लिहाज से पठनीय हैं कि उन्हें पढ़ते हुए आप उनकी मूल भावना से इस कदर जुड़ जाते हैं कि वह आपके अपने जीवन की कथा लगने लगती है और यह न भी लगे तब भी उस कथा को आप कहीं गहरे पहचानते हैं, महसूस करते हैं। कथा चाहे कितनी भी अलग और अछूते विषय को लेकर बुनी गई हो यदि पाठकों को स्पर्श करने की क्षमता यदि उसके अंदर न हो तो वह कथाकार की असफलता की कथा होती है। बदबू कहानी में इस तरह कमाल की पठनीयता है – कुछ इस तरह कि आप एक बार पढ़ना शुरू करें तो अंत तक पढ़े बिना आपको चैन न मिले।

2.       बदबू की कथा मनुष्य के परिस्थितियों के दास बन जाने की कथा नहीं है – हां यह जरूर है कि कथा में बहुतेरे लोग परिस्थिति के दास की तरह चित्रित हुए हैं। बदबू के साथ उनका मानसिक और शारिरीक समझौता इस बात की ओर संकेत करता है कि वे बदबू में रहने के आदी हो गए हैं – यह बदबू सिर्फ किरासन तेल या कारखाने की गंदी कालिख की बदबू नहीं है बल्कि हमारे सड़े हुए तंत्र की भी दुर्गंध है जिसके साथ हम आराम से अपना जीवन बसर कर रहे हैं और हमें बहुत खास कुछ मलाल नहीं है, अगर है भी तो भय के वशीभूत हम उसे प्रकट करना नहीं चाहते।  पूरी कथा में बदबू के ध्वन्यार्थ या व्यंग्यार्थ को महसूस किया जा सकता है। यदि कारखाने को एक देश मान लिया जाए और उसमें काम करने वाले लोगों को आम नागरिक तो एक बहुत ही मार्मिक बिंब उभर कर आता है जो हमें सोचने के लिए बाध्य करता है।

3.       इस कहानी में तंत्र की साजिशें हैं – उस एक आवाज के खिलाफ जो नायक की है। नायक कारखाने में नया आया है लेकिन वह अन्य लोगों की तरह समझौता परस्त नहीं है – वह अन्याय के खिलाफ अवाज उठाता है – लोगों को एकत्र करता है। कुछ लोग उसके साथ आते भी हैं लेकिन संगठन की खबर चीफ तक पहुंच जाती है और वह नायक को कई तरह से समझाता-धमकाता है। यहां कारखाने में मजदूरों की जो अवस्था है उसकी झलक मिलती है। साहब लोग दिन भर सिगरेट फूंकते हुए घूमते रहते हैं लेकिन एक मजदूर जब छूपकर बीड़ी पीता हुआ पकड़ा जाता है तो उसपर जुर्माना लगा दिया जाता है – सारे मजदूरों को बीड़ी न पीने की सख्त हिदायत दी जाती है। इस हिदायत के खिलाफ जब कथा का नायक आवाज उठाता है तो चीफ की भौंहे तन जाती हैं और उसपर नजर रखी जाने लगती है। इस देश के कारखाने में आज भी मजदूरों की अवस्था कमोबेश यही है – वे रातदिन जी तोड़ मिहनत करने के बाद भी उचित मजदूरी प्राप्त नहीं कर पाते और उनके साथ ऐसे सलूक किया जाता है जैसे वे आदमी न होकर कोई जीव हों जिनका जन्म ही मिहनत करने और चुपचाप अन्याय सहने के लिए हुआ हो।

 कहानी में तंत्र की साजिशें हैं तो उसके खिलाफ उठने वाली आवाज भी है – कहानी में सिर्फ साजिशें होतीं और अंततः नायक का बदबू के साथ समझौता कर लेने के दृश्य अकित होते तो मेरे लिहाज से यह कहानी बड़ी कहानी नहीं बन पाती। कहानी का नायक कारखाने के अत्याचारी तंत्र के खिलाफ अकेले ही आवाज उठाता है – वह वहां काम करने वाले लोगों को संगठित करना चाहता है, भले ही उसके प्रयास विफल हो जाते हैं लेकिन उसके अंदर की मानवीयता और अन्याय के खिलाफ विद्रोह करने की क्षमता का शमन नहीं हुआ है। कहानी में तंत्र की साजिशों के आगे नायक एक जगह पर विवश दिखने लगता है, जो स्वाभाविक भी है लेकिन कहानी का अंत इस तरह होना हमें गहरी आश्वस्ति से भर देता है – दूसरी बार मिट्टी लगाने से पहले उसने हाथों की सूंघा और अनुभव किया कि हाथों की गंध मिट चुकी है। सहसा एक विचित्र आतंक से उसका समूचा शरीर सिहर उठा। उसे लगा आज वह भी घासी की तरह इस बदबू का आदी हो गया है।  उसने चाहा कि वह एक बार फिर हाथों को सूंघ ले, लेकिन उसका साहस न हुआ मगर फिर बड़ी मुश्किल से वह धीरे-धीरे दोनों हाथों को नाक तक ले गया और इस बार उसके हर्ष की सीमा न रही... पहली बार उसे भ्रम हुआ था। हाथों से कैरोसीन तेल की बदबू अब भी आ रही थी। कहानी में यहां आकर बदबू का अर्थ बिल्कुल बदल जाता है – यहां बदबू मनुष्य की उस जिजिविषा का प्रतीक बन जाता है जो विपरीत से विपरीत परिस्थिति में भी जिंदा रहता है। यहां उद्धरित पंक्तियां नायक के समझौता न करने की क्षमता को भी दर्शाने वाली पंक्तियां हैं जो कथा को एक पोजिटिव शेड देती हैं।
5.     
  कथा में गरीबी के संकेत एक वाक्य खण्ड के द्वारा मार्मिक ढंग से अभिव्यक्त हुआ है – बबुआ की टोपी इस बार भी रह गई।  कथाकार ने बस इतना भर कहलवाया है – वह डिटेल में नहीं जाता। शेखर जोशी आनावश्यक डिटेल में जाने वाले कथाकार नहीं है – वे एक वाक्य में कथा की एक बड़ी दुनिया क अभिव्यक्त करने की योग्यता रखने वाले कथाकार हैं। वे कथा को आगे बढ़ाने के लिए छोटी-छोटी उप कथाओं का सहारा लेते हैं – बिट और व्यंग्य का इस्तेमाल करते हैं लेकिन वे सभी उनकी केन्द्रीय कथा को और अदिक सुस्पष्ट और बनाने और धार देने के लिए होते हैं। इस कथा में भी घासी राम का एक प्रसंग एक मजदूर के मुंह से कहलवाया गया है।
6.       शेखर जोशी की कहानियों के संवाद बेहद चुटिले और संक्षिप्त हैं। उनके पात्र बहुत कम बोलकर अधिक अर्थों की अभिव्यक्ति करते हैं – बदबू कहानी भी इसका अपवाद नहीं है। बबुआ की टोपी इस बार भी रह गई – इस छोटे से संवाद में गरीबी-बेबशी और पीड़ा का एक पूरा संसार झलक उठता है।




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  अनहद से साभार

Friday, June 27, 2014

एक गुमनाम लेखक की डायरी-41

अच्छा, अभी अंग्रजी में ऐसै कौन-कौन से युवा कवि हैं जिनकी कविताएं साहित्यिक पत्रिकाओं में छप रही हैं। सिर्फ अंग्रेजी ही नहीं विदेशी भाषाओं में या भारत के ही कई अन्य भाषाओं में। मैं नहीं जानता। सचमुच मैं नहीं जानता। और इस बात पर मुझे अपने पर बहुत कोफ्त भी है। मेरी अंग्रेजी उतनी अच्छी नहीं है - उतनी अच्छी तो बिल्कुल नहीं कि मैं अंग्रेजी में लिखी कविताओं को ठीक उसी तरह समझ पाऊं जैसा कि हिन्दी की कविताओं के साथ होता है।

लेकिन सच मानिए मेरे अंदर जानने की जिज्ञासा है। कई पुराने कवियों के अनुवाद हिन्दी में उपलब्ध हैं - उनमें से अदिकांश ऐसे हैं जिन्हें साहित्य का प्रतिष्ठित नोबल मिल चुका है। मैंने कई कविताएं इधऱ-उधऱ से पढ़ी हैं लेकिन हाल में अंग्रजी कविता या अन्य विदेशी कविता का युवा स्वर कैसा और क्या है - इसके बारे में मैं अनभिज्ञ हूं।

एक रचनाकार को न सिरफ अपनी भाषा बल्कि दूसरी भाषाओं में भी हो रही साहित्यिक हलचल की जानकारी तो होनी ही चाहिए। अगर मुझे यह जानकारी नहीं है तो मैं अपने को एक मुकम्मल रचाकार बनाने की दिशा में कैसे आगे बढूं।

इसलिए मैंने सोचा है कि मैं कहीं से भी कुछ भी कर के विदेशी भाषाओं के युवा कविता स्वर या अन्य भारतीय भाषाओं के युवा कविता स्वर के बारे में जानने की कोशिश करूंगा। मैं जानता हूं कि यह बिना अंग्रेजी जाने नहीं होगा लेकिन जितना भी अपने सीमित  अंग्रेजी ज्ञान की बदौलत समझ पाऊं - समझने की कोशिश करूंगा।

अपनी भाषा के कवच से बाहर निकले बिना शायद बड़ी कविता संभव नहीं। 

Thursday, June 26, 2014

एक गुमनाम लेखक की डायरी- 40

आज कविता को लेकर विजयेन्द्र जी से बात हुई। मैंने अपनी चिंताएं उनके सामने रखीं। कि मैं अपनी कविताओं से भयंकर तरीके से असंतुष्ट हूं। यह असंतोष इसलिए है कि वह कविता मैं नहीं लिख पा रहा हूं - जिसे लिखना चाहता हूं।
विजयेन्द्र जी ने कहा कि अपने पीछे के लेखन की तरफ मत देखो - आगे की ओर देखो। एक बात जो उन्होंने बहुत महत्वपूर्ण कही वह कि  अहंकार, आत्ममुग्धता और वैचारिक अनिश्चय कवि की आंतरिकता को खा जाते हैं।
मैं अगर अपनी बात कहूं तो लेखक के रूप में मेरे अंदर अहंकार तो हई नहीं, और इस तरह मैं आत्ममुग्ध भी नहीं। अब तीसरी बात वैचारिक अनिश्चय की है।  मैं किसी खास पार्टी या विचारधारा से नहीं जुड़ा। लेकिन बचपन से अब तक अपनी एक विचारधारा तो मैंने निर्मित कर ही ली है। उस विचारधारा को भले ही मैं कोई नाम न दे पाऊं - लेकिन वह अंदर कहीं है। आदमीयत को मैंने सबसे पहले रखा है - मेरे लिए जाति वंश सम्प्रदाय का कोई मोल नहीं है। मेरे लिए सबसे पहले आदमीयत की बात आती है ।

लेकिन मन कभी-कभी अनिश्चय के गर्त में चला जाता है। कि क्या मुझे किसी खास विचारधारा से जुड़ना चाहिए। लेखकों के जो संगठन हैं - उनमें मेरा विश्वास नहीं। कई तरह के जो लेखक संघ हैं उनमें भी ऐसे लोग भरे पड़े हैं जिनका लेखन से दूर-दूर तक कोई रिश्ता नहीं। 

तो ऐसे में एक निजस्व विचारधारा को लेकर साहित्य या कविता की दुनिया में सक्रिय रहना क्या बुरा है। यह विचारधारा भी समय के साथ परिवतित होती रहती है लेकिन मेरा दृढ़ मत है कि वह परिवर्तन भी समाज और मनुष्य के सरोकार से साकारात्मक तौर पर जुड़ा हो, तभी उसका कोई अर्थ है।

किसी भी समय में मनुष्य सबसे पहले है - चाहे कविता हो, विचारधारा हो या अन्य कोई और कला। सबार उपरे मानुष ताहार उपरे नाई।


Tuesday, August 13, 2013

एक गुमनाम लेखक की डायरी-39

किस दिन ऐसा जाता है कि मन उदास नहीं होता.. क्या यह मेरे साहित्य से जुड़ने के कारण है या फिर उसके कारण जो मैं करना चाहता हूं और अब तक नहीं कर पाया हूं।  अपनी लिखी एक कविता पढ़ता हूं और उदास हो जाता हूं - यह सोचकर चिढ़ भी होती है कि प्यारे क्या वकवास लिख दिया। ऐसी कविताएं लिखकर क्या साबित करना चाहते हो तुम खुद को।

कविता संग्रह एक देश और मेरे हुए लोग छपकर आने वाला है, माया मृग के लागातार संपर्क में हूं। बार-बार पूछता हुआ कि कवर पाइनल हुआ या नहीं। बार-बार सुनता हुआ कि आप चिंता न करें पाइनल होने पर आपको मैं मेल कर दूंगा। फिर-फिर कुछ देर बाद वही सवाल। मेरे अंदर इन सब चीजों के लिए धैर्य क्यों नहीं है।

यह जानते हुए कि कवर अब तक नहीं आया होगा ..मैं बार बार मेल के इनबॉक्स में जाकर उसे ढूंढ़ता हूं - इस किताब या पहले की भी आने वाली किताब के पहले मन बच्चे की तरह अस्थिर और अधैर्य क्यों हो जाता है।

नील कमल से बात हो रही थी - पहली किताब के बाद यह दूसरी किताब जल्दी आ रही है।
तीसरी और जल्दी आएगी - मैं कहता हूं।
वाह, यह हुई न धोनी की पारी - नील कमल उत्साहित हैं।

लेकिन मैं थोड़ा उदास हो जाता हूं - भाई किताब आनी महत्वपूर्ण नहीं है, यह भी हो कि यह लोगों को पसंद आए, लोग उसपर ढंग से बात करें। वरना तो किताब आती रहे और सेल्फों में सजती रहे, तो क्या मतलब है ऐसे और इस तरह किताबों के आने का।

हिन्दी आलोचना व्यक्तिगत पसंद और नापसंद के घेरे में कैद है भाई - ये नील कमल हैं।

मैं इस दुनिया में रहते हुए कई बार उदास हो जाता हूं। - मैं कहता हूं।

-आलोचना की स्वस्थ संस्कृति नहीं है हिन्दी में  जो है, वह जोड़ तोड़ ज्यादा है


-जी, वही.... इसलिए ही कई बार निराशा होती है... अब अपना कोई गुट नहीं.... अपने लोग भी कहां हैं इस दुनिया में जिधर आंख ठाकर देखें तो साहस मिले.....

लेकिन इन सबके बीच हम इस एक बात पर सहमत होते हैं कि हमें अपना काम करना है - बस वही है हमारे हाथ में। 

फिर भी उदासी है कि कम होने का नाम नहीं लेती।

Wednesday, August 7, 2013

एक गुमनाम लेखक की डायरी -38

कभी-कभी मन बेहद उदास हो जाता है। बारिश की फुहारें भी उदास कर जाती हैं। धूप का चटक रंग भी उदास कर जाता है। बारिश  में चलने वाली कोई एक हवा दूर-दराज के एक गांव में लेकर जाती है। मिट्टी और कींचड़ से सनी गलियां  और  उसमें खेलते बच्चे।  मैं उन्हीं कींचड़ भरी गलियों से निकलकर यहां आया हूं - यहां इतनी दूर इस शहर में जिसका नाम कोलकाता है। 
उदास होकर मन उन खेतों में भटकता है जो हल से जोते गए हैं और जिनमें बाबा खूब तेज चाल में चलते हुए बीज की छिटाई कर रहे हैं - मैं एक मेड़ पर खड़ा देखता हूं। 
तब के मन में अपना एक छोटा खेत होता है जिसमें मैं गेहूं के बीज डालता  मैं एक किसान हूं - जिसे अपने उस छोटे खेत में बीज को पौधे में तब्दील होते हुए देखना है - उसकी रखवाली करनी है।

सपने में एक मचान है जिसपर मैं अकेले बैठा खेत की रखवाली कर रहा हूं - एक कोई सुंदर लड़की मेरे लिए कपड़े में बांधकर कुछ रोटियां लेकर आई है - अपने गमछे से  अपना चेहरा पोंछता प्याज के साथ रोटियों के टुकड़े धीरे-धीरे खा रहा हूं।

मेरे सपने में कोई शहर नहीं है - शहर की बड़ी नौकरी नहीं है। कविता नहीं है - कहानी भी नहीं।   सपने में मेरा गांव है  और गांव के लोग हैं।

समय बदल गया है। गांव दूर  छूट गया है। लेकिन यह अजीब ही है कि सपने में जब भी खुद को देखता हूं तो गांव में ही देखता हूं। पूरी दुनिया में भटकने के बाद अंततः देखता हूं कि गांव के दुआर पर खड़े नाम के पेड़ के नीचे हूं। सुस्ता रहा हूं नीम के झरे हुए फूलों पर बैठकर - दुलारचन काका की सिनरैनी सुन रहा हूं, बुचुल भांट का किलांट सुन रहा हूं -जोसेफ मियां का पिस्टीन सुन रहा हूं।

सपने में बाबा हमेशा जिंदा रहते हैं - जिंदा और साबुत। दोनों बैल जिदा होते हैं - नाद पर भूसे खाती ललकी गाय भी साबुत और जिंदा मिलती है। यहां रोजमर्रा के जीवन में शहर का शोर है - धुआं है।

कितना अच्छा है कि उदासी खींचकर बहुत दूर एक गांव में ले जाती है - जो छूट गया मेरा अपना ही गांव है - और हर रात सपने में  कुद को गांव के चौपाल पर खड़ा पाता हूं।

Tuesday, June 25, 2013

एक गुमनाम लेखक की डायरी - 37

सरकारी दफ्तर में एक मामूली अनुवादक के रूप में मेरी सारी महत्वाकांक्षाएं लेखन से ही जुड़ी है - लेखन से महत्वाकांक्षा के जुड़े होने का मतलब लेखन के साथ न्याय के साथ ही स्वयं को लेखन की उस ऊंचाई तक ले जाना है - जहां अपना कुछ महत्वपूर्ण और रेखांकनीय योगदान हो सके। इस महत्वाकांक्षा में पुरस्कार हथियाना शामिल नहीं। (जाहिर है कि महत्वाकांक्षा शब्द से पुरस्कार वगैरह की बू आती है) अगर मिल जाएं तो भी जब तक लेखन से खुद संतुष्ट न हो लूं, उनका कोई अर्थ नहीं।
आज उस मित्र की याद आ रही है जो कहता था कि उसके लिए लेखन से ज्यादा महत्वपूर्ण पुरस्कार है, पुरस्कार पाने के लिए वह कुछ भी करने को तैयार था। एक पुरस्कार देने से एक संस्था के निदेशक ने उसे मना किया तो वह शराब के नशे में उन्हें गालियां बकता और अस्लील एसएमएस करता था।  एक दिन उसने मुझसे कहा था कि विमलेश भाई आज से दस साल बाद लोग यह भूल जाएंगे कि मैंने पुरस्कार लेने के लिए कितना जोड़-तोड़ किया – कितने पापड़ बेले – बस उन्हें यह पुरस्कार याद रहेगा जो मेरे कद को बड़ा करेगा। वह ऐसे ही सोचता था। वह आज ज्ञानपीठ का नवलेखन पुरस्कार और यहां तक कि साहित्य अकादमी का युवा पुरस्कार भी पा चुका है। हालांकि अब वह मुझसे बात नहीं करता लेकिन मुझे कई बार उसकी याद आती है।
मैं कभी कभी सोचता हूं कि पुरस्कार के लिए वह जो कुछ करता रहा है या किया है – वह क्या मैं कर पाऊंगा ? ऐसा नहीं है कि यह कर सकने की योग्यता मेरे पास नहीं – लेकिन यह कर के अपनी रचना को मैं कैसे बचा पाऊंगा। और जब लेखन ही नहीं बचेगा तो पुरस्कार का क्या अर्थ।
इस बात से जरूर संतोष होता है कि भविष्य में जब समकालीन साहित्य को खंगाला जाएगा तो वही बचेगा जिसके पास लेखन की ताकत होगी। लेकिन क्या वे नहीं बचेंगे जिसके पास ढेरों पुरस्कार होंगे?  


जीवन और लेखन दोनों में ही चालबाजी नहीं आई मुझे। इसका अफसोस भी नहीं है – कम से कम इस बात का संतोष है कि मैं अन्य लोगों की तरह नहीं। बहुत लोगों से बहुत आधिक आदमी हूं मैं। और यह आदमी होना कितना जरूरी है – यह मैं सचमुच समझता हूं एक लेखक होने के नाते। लेखन और जीवन लागातार आदमियत की ओर यात्रा ही तो है।

Friday, January 18, 2013

एक गुमनाम लेखक की डायरी-36

केदार पर लिखते हुए कुछ बातें मन में साफ हुईं। कुछ प्रश्न भी उभरे। 

प्रश्नों के बिना क्या जीवन की कल्पना की जा सकती हैं ?

जरा सोचिए कि हमारे मतिष्क का वह सिरा अलग कर दिया जाए जिसमें प्रश्न उभरते हैं, तो हम कैसे हो जाएंगे। 
हम चुपचाप सुनेंगे - ढेर सारी किताबें पढ़ेंगे - लेकिन हमारे जेहन में कोई प्रश्न उभर कर नहीं आएगा।  
वह कैसी स्थिति होगी - प्रश्नों के बिना हम कैसे?