Monday, November 12, 2012

एक गुमनाम लेखक की डायरी - 34

समय बड़ा निर्मम होता है। कि नहीं?

समय की बहुत नदियां पार बहुत सारी ऐसा चीजें  बेमानी हो जाती हैं, जो कभी इतनी मानीखेज होती हैं कि उनके लिए हम कुछ भी कर गुजरने के लिए तैयार रहते हैं, कितने-कितने जतन करते हैं उन्हें-पाने बचाने के लिए।

पर यह समय अपनी रफ्तार में पता नहीं कितने तिलिस्मों को भांग-चूर कर देता है। वह नहीं समझता कि वही तिलिस्म हमारे जीते रहने के अप्रत्यक्ष प्रेरणा होते हैं।

आज दिवाली है। लेकिन मेरे मन में जो असंख्य दिवालियां हैं, उनसे बड़ी यह दिवाली नहीं है। हम पटाखें सुखाने का समय पीछे छोड़ आए हैं। दिवाली के पहले दोस्तों के साथ बैठकर दिवाली मनाने की योजनाएं बहुत पीछे छोड़ आए हैं। 
छूट गए समय में हमारे लिए दिवाली मतलब घी और तेल के दिए होते थे, मिरचइया बम, फूलझड़ी, चकरी, लाइट, पटकउआ, चिटपुटिया, चकलेट बम ये हमारे लिए दिवाली के मायने होते थे।
पूजा जैसी कोई चीज भी होती थी। जिसे घर में बाबा करते थे। लेकिन मुझे याद नहीं कि उस दिन हम निठाइयों की बात करते हों या खाते हों?

दिवाली के दिन पटाखे फोड़ लेने के बाद हम गेहूं की रोटी और आलू की तरकारी खाते थे। हमारे गांव में दिवाली कहीं से भी खाने-पीने का त्योहार नहीं होता था। छठ पूजा में पुआ पकवान बनते थे जो दिवाली के ठीक छठे दिन होती है। लेकिन दिवाली में पुए पकवान की याद नहीं आती है मुझे।

मिट्टी की दियरी होती थी। कुम्हार का आना और मिट्टी की तरह-तरह की अकृतियां अब भी याद हैं - जो सपने में आती हैं, जो झपसी कुम्हार लेकर आते थे।

दिवाली हमारे लिए मिट्टी का त्योहार था - घर लिपने से लेकर मिट्टी के वर्तन तक का त्योहार। लेकिन उस त्योहार में धीरे -धीरे बारूद भी शामिल हो रहा था और हम बारूद में शामिल हो रहे थे।

अब मिट्टी बहुत पीछे छूट गई है - सिरफ बारूद रह गया है।

दिवाली जब भी आती है - मुझे छूट गए समय में खींचकर ले जाती है। मिट्टी की दियरी और मामूली पटाखों की तरफ....। 

उन हसरतों की ओर जो अब तक पूरी नहीं हुई.....।

Wednesday, October 31, 2012

एक गुमनाम लेखक की डायरी- 33


मेरी मां कविताएं नहीं समझती। कहानियां भी नहीं। पढ़ नहीं पातीं। पहले पढ़ती थीं -अब पढ़ना भूल चुकी हैं।

कभी-कभी सोचता हूं कि अगर मैं भी नहीं पढ़ पाता तो कितना अच्छा होता - मां की कई बातें जो मेरी अनपढ़ बहनें समझ लेती हैं- मैं भी समझ लेता। वह जो मेरे और उसके दरम्यान शब्दों की एक अदृश्य दीवार बन गई है - वह नहीं बनती।

कई बार मैं और पिता जब किसी बात पर बहस कर रहे होते हैं तो वह टुकूर-टुकूर देखती है। सुनती है - समझने की कोशिश जब बेकार हो जाती है तो फिर से उसी तरह देखने लगती है। उसे दुख नहीं होता कि वह समझ नहीं पाती - उसके चेहरे पर मेरी बातों को सुनकर एक ऐसा भाव आता है जिसको शब्दों में बांधन मेरे जैसे गुमनाम लेखक के लिए कत्तई संभव नहीं - शायद यह मैं कभी न कर पाऊं।

मां आज भी रोती है - जब हम बहुत दिनों बाद उससे मिलने हंकासे-पियासे पहुंचते हैं अपने गांव। मां हमें देखकर रोती है। उसके रोने में हम उसके खुस होने की तस्वीर देखते हैं। फिर जब लौटना होता है - हम लौटते हैं और वह रोती है। और कोई नहीं - सिर्फ वही रोती है। उसका रोना तब हमें द्रवित करता है - अपने शहर में बस जाने पर खीझ होती है। 

मैं चाहता हूं कि मैं भी उससे लिपट कर रोऊं, लेकिन पता नहीं क्या मुझे ऐसा करने से रोक देता है। बहुत पहले के समय में हमारा रोना याद आता है- जब बहुत खोजने पर मां घर में नहीं मिलती थी। शायद हमसे तंग आकर कहीं छुप जाती थी। और जब वह मिलती थी तो हम उससे चिपट कर रोते थे। लेकिन अज जब अलग होते हैं तो रो नहीं पाते। चिपट नहीं पाते उससे।

यह एक अघोषित दूरी क्योंकर पैदा हो चुकी है - वह क्या है जो रोकता है ऐसा करने से। समझ नहीं आता।

कभी-कभी  मैं देखता हूं कि जब कोई काम नहीं होता मां के पास।  आंखें धुंधला गई हैं - मोतिया के धब्बे पड़ गए हैं - वह चुपचाप एक कोने में बैठकर मेरी कविता की एक किताब को हाथ में लिए उसके एक-एक शब्दों को सहलाती है - महसूसती है।

मैं सम्हाल नहीं पाता खुद को मां का यह रूप देखकर। और चुपचाप एक कोने में खड़ा होकर खूब-खूब रोता हूं।

कुछ देर बाद मां के सामने खड़ा होता हूं। मां किताब छुपा लेती है। वह नहीं चाहती कि उसकी इस एकांत क्रिया में कोई  बाधा हो। और मैं देखूं उसके इस क्रिया को।

सोचता हूं कि मां एक दिन नहीं रहेगी।  हो सकता है मेरी कविताएं बहुत सारे लोग पढ़े। लेकिन जिस तरह मां अकेले में पढ़ती है मेरी कविताएं - ठीक वैसे ही कभी मेरी एक भी कविता को कोई पढ़ पाएगा ?

यह सोचना मेरे लिए कितना दारूण है - यह क्या कभी बता पाऊंगा शब्दों की मार्फत? ।शायद नहीं। शायद क्यों - नहीं ही बता पाऊंगा। मां के वे स्पर्श मेरी कविताओं पर हमेशा रहेंगे - किसी ईश्वर की छाया की तरह...।

Wednesday, October 17, 2012

एक गुमनाम लेखक की डायरी- 32


  • किस जगह जाने के लिए यह मन छटपटाता है - किस कोने-अंतरे में, जहां कुछ पल निस्संग रहा जाय। कविता के लिए नहीं - किसी तरह के लेखन के लिए भी नहीं। सिर्फ उस निस्संगता के साथ रहने के लिए। विस्मृति के साथ - एकदम ऐसे कि मेरा कोई नाम न हो, पता न हो, जाति धर्म कुछ भी न हो। मन हहरता है ऐसे पलों के लिए... मिलता नहीं वह पल...जो सिर्फ मेरा हो - उसमें किसी की हिस्सेदारी न हो।
  • सोचता हूं कि दो महीने की छुट्टी पर चला जाऊं और सबकुछ भूलाकर अपना उपन्यास पूरा कर सकूं। एक उपन्यास जो कुछ तो लिखा गया है, लेकिन बाकी मन की अंतरगुहाओं में बंद है। किसी भी चरित्र से अब तक ढंग से  बतिया नहीं पाया। कई के चेहरे तक याद नहीं।  उनसे मिलने के लिए एक ऐसी जगह चाहिए जहां वे निर्भय होकर आ सकें - रह सकें। अपनी बातें कह सकें।  लेकिन यह हो नहीं पाता। नौकरी और घर के बीच समय का इतना पतला धागा है, जिसपर ठीक से चलना भी मुहाल है...सोचता हूं....सोच रहा हूं....।
  • कविता की किताब का अंग्रेजी अनुवाद होकर आया है। आजही भेजा कल्पना राजपूत ने। करीब डेढ़ साल के बाद। उनकी मेहनत के सामने नतमस्तक हूं। अब तक एक भी कविता नहीं पढ़ी, सिर्फ प्रिंट ले लिया है। कुछ दिन पहले बांग्ला का अनुवाद देखा था। वह लगभग पूरा हो चुका है, उसकी फाइनल ड्राफ्ट आने वाला है।  
  • सुबह से मन उदास है। तबियत कुछ ठीक नहीं शायद इस वजह से। या पता नहीं किस कारण। 
  • एक देश और मरे हुए लोग सिरिज की एक कविता परेशान कर रही है- सोचा था आज उससे बात करूंगा- कि क्या चाहती है। लेकिन पूरे दिन इधर-उधर के निरर्थक काम में उलझा रहा। अब सोच रहा हूं कि उसे लेकर बैठूं।  एक पागल आदमी की चिट्ठी  सिरिज की 9 कविताएं वसुधा को भेजनी है, उसे भी एक बार फिर से देख लेना चाहता था, लेकिन नहीं हुआ। बात कल तक के लिए टल गई है।
  • कविता कोशिश कर के नहीं लिखी जा सकती। कम से कम मैं तो नहीं लिख सकता। वह आपने आप आती है..तब तक के लिए इंतजार करना होता है..। आजकल वह ईंतजार चल रहा है। एक फिल्म पर कुछ लिखना है.. पथेर पंचाली से बेहतर फिल्म कौन सी हो सकती है लिखने के लिए...। कुंअर नारायण की एक भी कविता ठीक से नहीं पढ़ी..लेकिन ओम जी को वादा कर चुका हूं- लेख भेजने के लिए...। इस तरह के दबाव मैं खुद ओढ़ता हूं कभी-कभी ताकि खुद को सक्रिय रखा जा सके..। वर्ना तो मैं कितना आलसी हूं..वह मैं ही जानता हूं...।
  • एक कहानी राह देख रही है...और मैं मुंह चुराए भाग रहा हूं...। लेकिन कब तक..???

Tuesday, October 16, 2012

एक गुमनाम लेखक की डायरी - 31

बात जन्मकुंडली से ही शुरू होती है। मेरे साथ काम करने वाले प्रायः सभी लोगों की जन्मकुंडली है। मेरे एक बहुत अच्छे मित्र जो, कलकत्ता विश्वविद्यालय में मेरे सिनियर भी थे, एक अच्छे ऑस्ट्रोलॉजर हैं। उन्होने भी पूछा कि कुंडली लेकर आओ फिर तुम्हारे बारे में बताऊंगा। मैंने कहा की मेरी तो कोई जन्मकुंडली ही नहीं है। आपकी है क्या? वैसे हो या न हो इससे कोई खास फर्क नहीं पड़ना मुझे। लेकिन इस कुंडली के लिए सही जन्मतिथि की जरूरत पड़ती है, यह बात पता चली और मित्रों ने बतायी। 

मैंने मां से पूछा - तोरा पता बा माई हमार जन्म कब भईल रहे? मां सोच में पड़ गई। बोली कि जिस साल बड़की बाढ़ आयी थी ना उसी साल तुम्हारा जन्म हुआ था, बुधवार का दिन था, जाड़ा भी पड़ रहा था और  आधी रात का समय था। मैंने कहा कि क्या पिताजी ने समय दिन तारीख लिखा नहीं था तो उसका जवाब था कि पिता तो कलकत्ते में थे। और कौन था जो लिख सकता। बाबा को तो लिखने आता नहीं है, हां उसके बाद पंडित जी आए थे और कहा था कि लड़का सतइसा में पड़ा है और इसका नाम ध से होना चाहिए। इसलिए तुम्हारा नाम धनोल हुआ। पूरा नाम धनोल पति तिवारी।

बचपन में बाबा मुझे धनोलपति ही कहते थे। यह नाम राशि का था। पुकार का नाम विमलेश। जिसे गांव में मेरे दोस्त भीमलेस कहते। भीम जोड़ने से मेरे नाम को पुकारना उनके लिए आसान हुआ करता था। मुझे याद है जब बाबा पहली बार मेरा नाम स्कूल में लिखवाने गए थे तो जब हेडमास्टर ने पूछा तो उन्होने मेरा नाम भीमलेस ही बताया था, लेकिन मैंने तुरंत कहा कि नहीं भीमलेस नहीं बिमलेश ( मुझे बाद में पता चला कि सही नाम विमलेश है)। उस समय की बात अब भी याद है, इसके पहले बच्चा क्लास में मैं पढ़ने जाता था, उस क्लास में पढ़ने के लिए नाम लिखवाने की जरूरत नहीं पड़ती थी। जो भी हो, मां की बातों से मैं भयंकर संसय में पड़ गया। पिता से पूछने पर भी कुछ खास मालूम नहीं हुआ। वे यही कहते रहे कि  साल 80 के पहले ही तुम्हारा जन्म हुआ है लेकिन किस साल यह बताना मुश्किल है। 
फिर बात लगभग आयी गई हो गई। माध्यमिक परीक्षा में विद्यालय के मास्टर साहब ने एक जन्म दिन और वर्ष अपने से लिखकर बोर्ड में भेज दिया। और वही  प्रमाण-पत्र के हिसाब से मेरा जन्मदिन  हो गया। मेरे साथ आजीब बात यह रही है कि मैं अपनी कक्षा में और बच्चों से बड़ा दिखता था, बचपन से ही मेरी लंबाई अच्छी थी और शरीर भी हृष्ट-पुष्ट था। आज भी मेरी लंबाई 6 फीट के करीब है। मुझे लगता है कि विद्यालय के माट साहब ने मेरी उम्र बढ़ाकर लिख दी। और उस जन्म से  मेरी कुंडली तो  नहीं बन सकती थी - राजीव दा का भी यही कहना था।

कुछ दिनों पहले  मेरे अग्रज कवि बोधिसत्व का फोन आया। पूछने लगे कि कि तुम्हारा जन्म वर्ष क्या है। मैंने कहा कि दादा ये तो मुझे पता नहीं। जो है वह सही नहीं है। उन्होंने कहा कि पता करो और सही जन्म वर्ष बताओ। लोग पूछते हैं कई बार तो मैं बता नहीं पाता। कई लोग तो य.ह भी कहते हैं कि तुम अपनी उम्र छुपाते हो।  मैं सोच में पड़ गया। मैंने उनको आश्वस्त किया कि जल्दी ही पता कर के सही उम्र बताता हूं क्योंकि प्रमाण पत्र में जो उम्र है वह सही नहीं है। कम से कम  जिस जगह मैं  उम्र सही लिख सकता हूं, वहां तो सही लिखूं। प्रमाणपत्र पर तो मेरा अदिकार नहीं है लेकिन साहित्य जगत में लोगों को सही उम्र बताना तो मेरा अधिकार है, और कर्तव्य भी।

अभी पिछले दिनों मैं गांव गया था तो मेरे भानजे ने पूछा कि आपकी सही उम्र क्या है।  वह बनारस में संस्कृत से आचार्य कर रहा है और ज्योतिष में उसकी रूचि है। कहने लगा कि मैं कुंडली बनाना सीख रहा हूं और मेरी ख्वाहिश है कि मैं आपकी कुंडली बनाऊं। मैं क्या जवाब देता। मैंने कहा कि अपनी नानी से पूछ लो, क्योंकि मैं जो जन्म वर्ष या तारीख बाताऊंगा वह सही नहीं है। तुम्हें तो सही-सही सब कुछ चाहिए। उसन् हां में सिर हिलाया और सीधे नानी यानि मेरी मां के पास पहुंचा। 

मां  को एक और बात याद आयी कि उसके एक-दो साल पहले चाचा का गौना हुआ था। वह चाचा के पास पहूंचा कि किस वर्ष उनका गौना हुआ यह जान सके। मैं जानता था कि यह गुत्थी सुलझने वाली नहीं है। मैं आराम से काशीनात सिंह की किताब घर का जोगी जोगड़ा पढ़ रहा था। 

और सोच रहा था कि अगर नामवर जी के साथ भी ऐसा हुआ होता या काशीनाथ जी के साथ यह हुआ होता, तो वे क्या करते।  भानजा  मेरी सोच में खलल डालता हुआ आया।  सुनिए मैं सारी बातें पता कर रहा हूं- मैं अपनी मां ( मेरी मझली बहन) से भी बात करूंगा और पता कर लूंगा कि आपके जन्म का वर्ष क्या है और दिन तारीख निकालने का एक फॉर्मूला है मेरे पास। मैं चुपचाप उसकी बातें सुनता रहा - और 15-16 साल के उस बच्चे के उत्साह को देखता रहा। मैंने सोचा कि अगर यह काम हो जाए तो मैं  बोधि दा को बता दूंगा सही-सही। 

मैं कोलकाता लौट आया और बात आयी गई हो गई। मैंने केदारनाथ सिंह पर एक लेख लिखा। वह लेख बड़े भाई अनंत कुमार सिंह के कहने पर लिखा था, जो जनपथ के संपादक हैं। लेकिन अपने परिचय वाले  अंश में  जन्म की तारीख न देखकर सोच में पड़ गया।  मुझे पूरी घटना याद हो आयी। मैंने तुरंत बच्चे को फोन लगाया - फोन पर वही था। 

कहा कि आपके जन्म के वर्ष का पता लगा लिया है - यह 1979 है। बाकी दिनांक और समय को लेकर कुछ संशय है- वह भी दूर कर लूंगा। मैंने कहा कि क्या तुम निश्चित कह रहे हो कि यह वर्ष 1979 ही है। सौ फीसदी- उसका कहना था। मैं अब तक 77-78 मानकर चल रहा था अपने हिसाब के मुताबिक - मैंने अपनी बात बतायी।

1979 सही है। अब अपने सारे संशय मिटा दिजिए। यही ठीक है और अपनी किताबों और पत्रिकाओं में भी यही वर्ष लिखा किजिए। मैंने उस लेख के साथ परिचय के उस अंश में लिखा - सही जन्म वर्ष 1979 और उसे ई-मेल कर दिया।

बोधिसत्व दा को अबतक नहीं बतायी यह बात। लेकिन अब मैंने मान लिया है कि मेरे जन्म का वर्ष यही रहेगा। बाकी 7 अप्रैल  को पता नहीं कितनी बार अपना जन्मदिन मना चुका हूं। तो उससे एक मोह-सा हो गया है। भानजा सही तारीख की खोज में है और उसी के आधार पर जन्मकुंडली भी बनाएगा शायद। मुझे जन्मकुंडली से क्या लेना। लेकिन अब मेरी जन्म की तिथि निश्चित है और वह है - 7 अप्रैल, 1979।

मैं अपने परिचय  की फाईल खोलता हूं और लिख देता हूं - जन्म 7 अप्रैल, 1979, बक्सर, बिहार के एक गांव हरनाथपुर में।

एक सकून -सा महसूस हो रहा है। अस्तु।

Wednesday, October 10, 2012

एक गुमनाम लेखक की डायरी -30


आज बहुत दिनों बाद बीड़ी पी। 
शेखर दा ने अपने दोस्त से मांगा। उन्होने मुझसे भी पूछा तो मैंने एक बीड़ी ले लिया। बीड़ी पीते हुए मुझे बहुत कुछ याद आया। पहली बात तो यही कि पता नहीं कब पिछली बार बीड़ी पी थी। 
दूसरे मुक्तिबोध की वह छवि जिसमें वे बीड़ी पीते हुए दिखायी पड़ते हैं। मैंने बाद में आकर अंतर्जाल में उनकी वही छवि बार-बार देखी।  और इस बात पर अफसोस भी किया कि उस समय जब मैं बीड़ी पी रहा था, मेरे पास कैमरा होता तो मैं जरूर बीड़ी पीते हुए एक तस्वीर खिंचवाता। 

खैर यह तो हो नहीं सका। लेकिन मैं कॉलेज के उन दिनों में चला गया जब जेब में सिगरेट के लिए पैसे नहीं होते थे, तब हम  रामविनोद से बीड़ी लेकर पीते थे। उस समय सिगरेट की जगह बीड़ी पीना हमारे लिए कितना सुखदायी होता था, हम ही जानते थे। वे ग्रजुएशन के दिन थे। प्रेसिडेंसी कॉलेज का बड़ा कैंपस था, अंग्रजी बोलते लड़के-लड़कियां थीं और उन्हीं लोगों के बीच हिन्दी माध्यम से पढ़ा पूरा गंवई ठाट वाला मैं घुस आया था।  मुझे  उन्हें देखकर अटपटा लगता था या नहीं यह मैं नहीं जानता लेकिन मुझे बहुत अटपटा लगता था।

मैं एक जगह कॉरिडोर में बैठा, सिगरेट पीता रहता था। जब सिगरेट न होती, तो बीड़ी। सबसे दूर सबसे अलग। उपेक्षित। तिरस्कृत।  उस समय खुद को ऐसा ही महसूस करता था। मैंने एक लड़की को एक कार्ड पर कविता लिखी थी - शायद कुछ ऐसा लिखा था कि होंठ सिल जाते हैं, शब्द साथ नहीं देते, शायद तुम समझ सकती हो कि कुछ न कह पाने का दुख कितना बड़ा होता है। दूसरे दिन लड़की ने मुझसे आंखें चुराना शुरू कर दिया था। मुझे उस समय बहुत क्रोध आता, दुख होता। अंदर एक पीड़ा की नदी धीरे-धीरे  बहती रहती, कुछ हृदय के पास पिघलता हुआ लगता था, और मैं अपना होश खो बैठता था।

उस समय जब कहीं कोई नहीं था। घर में मां और पिता से जितनी बातें होती रही हैं मेरी वह किसी एक ऐसे अजनबी से होती हैं जो कहीं से मजबूरीबश एक साथ रह रहे होते हैं। कॉलेज में कोई ऐसा नहीं जिसके सामने मैं रो सकता। 

उसी दौरान मैंने दुख और गुस्से में कविताएं लिखनी शुरू की थीं। कई बार ऐसा भी होता कि मैं हर सुबह आता और बोर्ड पर एक कविता लिख लेता। और चुपचाप निकल आता। मैं यह भी नहीं लिखता कि ये कविता किसकी लिखी है। सबलोग पढ़ते। कुछ लोग समझते- कुछ लोग नहीं समझते। वह लड़की तो समझती ही थी। लेकिन उसे किसी और लड़के से प्यार था।

मेरे अंदर प्यार जैसी कोई चीज थी या नहीं, मैं यह नहीं कह सकता। लेकिन जब भी उस लड़की को देखता था मेरे अंदर कुछ पिघलना शुरू करता था, और मैं खुद को सम्हालने की स्थिति में नहीं रह पाता था।

एक दिन कक्षा की बोर्ड पर एक कविता और लिखी और  पता नहीं क्यों इतना गुस्सा आया कि मैंने मुक्के से से जोर से बोर्ड पर प्रहार किया। मुढे इल्म नहीं था कि बोर्ड कांच का बना था और मेरे एक ही प्रहार से चूर-चूर होकर फर्श पर बिखर जाएगा। कक्षा के सभी लोग सकते में आ गए। बोर्ड के टूटने पर एक बॉन के फूटने की तरह आवाज हुई थी। मेरे हाथों से रक्त बह रहा था और मैं कुछ बुदबुदाते हुए कक्षा से बाहर निकल गया।

ऐसी कई घटनाएं हैं जो बीच-बीच में याद आ जाती हैं, कई बार हम उनपर हंसते हैं, दुखी होते हैं, लज्जित होते हैं। कई बार सोचते हैं कि वह समय अगर फिर से हमारे हिस्से में आ जाए तो उसे हम ठीक कर ले सकते थे। लेकिन ऐसा संभव नहीं है।

जिस दिन कक्षा का बोर्ड तोड़ा था, उस दिन पहली बार मैने पान पराग खायी थी। और चुप-चाप घर चला आया था। मैने सोच लिया था कि अब मुझे कॉलेज से निकाल दिया जाएगा, लेकिन मेरे दोस्तों ने झूठ बोलकर मुझे बचाया।

मुझे हमेशा ही ऐसे दोस्तों का कृतज्ञ होना चाहिए। उनमें से कई लोगों से अब संपर्क भी नहीं है, लेकिन जब भी यह घटना  याद आती है तब सीमा विजय, सायन्तनी, मनीषा, निखिलेश, रामविनोद आदि दोस्त याद आ जाते हैं।

रामविनोद के पास हमेशा ही बीड़ी मिल जाती थी। उस दिन या जब भी मैं बहुत उत्तेजित हुआ, वह मेरे साथ रहा। और बीड़ी पिलायी। एक दिन बहुत हैरान परेशान हालत में मैंने हिन्दू होस्टल में शराब भी पी।

आज जब बीड़ी पी रहा था तो पूरा एक जीवन मेरे सामने से गुजर गया। उन दिनों की लिखी कविताएं लाख कोशिश करने पर भी याद नहीं आयीं।  लेकिन कविता की शक्ल में वह लड़की जरूर याद आयी जिसके लिए मैंने कविताएं लिखनी शुरू की थीं......। 

Monday, October 8, 2012

एक गुमनाम लेखक की डायरी-29

अपनी कविताओं का बांग्ला अनुवाद देख रहा था। मैं बांग्ला पढ़ पाता हूं, थोड़ा बहुत समझ भी भाषा की है ही। साथ ही कुछ बांग्ला की कुछ किताबें मूल बांग्ला में ही पढ़ भी चुका हूं। जब मेरी कविताओं का बांग्ला अनुवाद मेरे सामने था और जब मैं उन्हें पढ़ रहा था तो एक अजीब सुखद अहसास हो रहा था मुझे। उसे यहां लिखकर बताना मेरे लिए संभव नहीं है।

कुछ कविताओं के अनुवाद बाकई बहुत अच्छे हैं लेकिन कुछ कविताओं को अनुवादक ने अपनी तरह से लिखने की कोशिश की है। जाहिर है मैं भी यह स्वीकार करता हूं कि अनुवाद एक पुनरर्चना है, जहां एक भाषा की भाव संकल्पना को बिना तोड़े उसे आप दूसरी भाषा में पुनः-सृजित करते हैं। 

अनुवादक का दायित्व इसलिए बहुत अधिक बढ़ जाता है। मेरी एक कविता में 'सिनरैनी' शब्द का प्रयोग है। 'सिनरैनी' हमारे गांव में हरिजनों द्वारा गाई जाने वाली लोक गायिकी की एक विधा है। 'सिनरैनी' 'शिनवारायणी' से आया हुआ शब्द लगता है, उसकी खास विशेषता यह है कि उसमें जीव, आत्मा, जगत और परमात्मा आदि की बातें कहीं जाती हैं। 

जब अनुवादक के सामने इस तरह का कोई शब्द आता है तो वह सकते में पड़ जाता है, क्योंकि यह एक ऐसी गायिकी की विधा है, जो बंगाल में ठीक उसी तरह प्रचलित नहीं है।  अनुवादक को मैंने समझाया कि बंगाल के गांवों में हरिजन जातियों द्वारा गाई जाने वाली लोक गीत की कोई ऐसी विधा नहीं है, जो सिनरैनी से मेल खाती हुई लगे। लेकिन लाख कोशिशों के बावजूद उस शब्द का सही-सही अनुवाद नहीं हो सका है। यहां सिर्फ लोकगीत कहकर काम चलाया गया है। इस तरह के और भी शब्द हैं, जो पूर्णतः गांव के हैं, और उनका उसी तरह ठीक-ठीक अनुवाद करना सचमुच बेहद कठिन है, असंभव भी है।

एक अनुवादक का काम कविता को बिना नुकसान पहुंचाए, उसे दूसरी भाषा में अंतरित करना होता है। कई बार मूल कविता पर अनुवादक की अपनी सोच हावी हो जाती है, या अनुवादक की भाषा और शिल्प का प्रभाव भी कुछ अधिक हो जाता है। ये दोनों ही चीजें अनुवाद के लिए नाकारात्मक होती हैं। 

एक अच्छा अनुवादक कविता की आत्मा और उसकी सही जगह की पहचान करते हुए कविता को इस तरह दूसरी भाषा में लाता है कि वह उसी भाषा की कविता लगने लगती है। यह अनुवादक की सफलता होती है।

अपने संग्रह हम बचे रहेंगे के पहले ड्राफ्ट को देखते हुए कुछ बातें जो उभर कर आईं , उसे लिख गया। 

मुझे फिर कहना चाहिए कि अनुवादक ने संग्रह का अनुवाद बहुत ही मेहनत से किया है, कुछ जगहें जहां कुछ शब्द या कुछ बातों को लेकर  संशय है, उसे कवि और अनुवादक दोनों मिल कर ठीक कर रहे हैं। यह अनुवाद के लिए एक जरूरी शर्त है, ऐसा मुझे लगता है।

Sunday, October 7, 2012

एक गुमनाम लेखक की डायरी - 28

इस बीच कई ऐसी घटनाएं हुईं जिन्हें याद कर लेना जरूरी है। नामवर जी ने मेरी कविता संग्रह पर अच्छी बातें कहीं। उसी संग्रह का बांग्ला अनुवाद मिस्टी दे ने  भेजा। मां से बहुत दिनों बाद बात हुई, मैंने उसके लिए एक साड़ी खरीदी। जिऊतिया का पर्व है आज। हर साल इस त्योहार के दिन अपनी मां के लिए मैं स्वयं साड़ी खरीदता हूं। वह बीमार रहती हैं, मैं हर बार यह व्रत करने से उन्हें रोकता हूं, लेकिन हर बार निष्फल होता हूं।

इस व्रत के बारे में कोई खास जानकारी मेरे पास उपलब्ध नहीं है। जो याद है, वह यह कि इसे गांव में खर जिउतिया कहा जाता है। खर से तात्यर्य यहां यह है कि इस दिन व्रत करने वाला पानी और अन्न तो क्या कोई खर भी अपने मुंह में नहीं डाल सकता। इसे हमारे यहां लगभग सबसे कठिन व्रत कहा जाता है, जो मां अपनी संतान की खुशी और उनकी लंबी उम्र के लिए करती है। बहुत  पहले इस दिन हम आजी के साथ गंगा जी जाते थे, गंगा जी वही जो अब गंगा जी न रहकर भागड़ बन चुकी हैं। गीत गाती हुई समूह में गांव की स्त्रियां गंगा तक जाती थीं, स्नान करने के बाद नए वस्त्र धारण करती थीं और एक गोलाई बनाकर बैठती थीं और कई तरह की कथाएं सुनाती थीं जिनमें इस व्रत की महत्ता प्रतिपादित की गई होती थी। मेरे लिए गंगा जी जाने का एक खास आकर्षण ये कथाएं हुआ करती थीं ।

मुझे लगता है कि जिउतिया शब्द द्वितीया से आया होगा क्योंकि यह व्रत द्वितीया के दिन ही किया जाता है प्रायः। 

तब यह व्रत मेरे लिए खास था, कि उसके एक दिन पहले घर में पूआ-पुड़ी बनती थी और एक खास चीज जो बनता था वह था ओठंगन। यह ओठंगन आटे का बना हुआ ठेकुए के आकार का ही होता था जिसे मां या आजी बना कर चूल्हे के साथ ओठंगा देती थीं। लेकिन यह एक अजीब बात यह थी कि इसे लड़कियां नहीं खा सकती थीं। हर पुरूष के लिए एक ओठंगन बनता था लड़कियों के लिए न बनता था और न उन्हें यह खाने की इजाजत ही थी।

उस समय भी मेरे मन में यह पश्न उठता था - कि क्यों ओठगन लड़कियां नहीं खा सकतीं।
आजी कहतीं - अगर लड़कियां इन्हें खा लें तो उनकी मूछें निकल आती हैं।

आज सोचता हूं तो लगता है कि यह लड़कियों को डराने वाली ही बात थी, और यह केवल आजी की बात नहीं थी, मेरे पूरे इलाके में यह प्रचलित था कि जो लड़कियां ओठंगन खा लेती थीं, उनकी मूछें निकल आने की संभावना बढ़ जाती थी। 

मां या आजी यह पर्व सिर्फ लड़कों (बेटों) की सलामती के लिए करती थीं।  मां के जितने लड़के होते थे उतनी ही सोने की जिउतिया बनवाई जाती थी, और पूजा अर्चना के बाद  प्रत्येक मां उसे धारण करती थीं। 

आज भी मां जिउतिया पहनेंगी जो बहुत पहले बचपन के दिनों में मेरे पैदा होने साथ ही बनवायी गई थी, आज अपने गले से निकाल कर मां मुझे वह जिउतिया मुझे भी पहनाएंगी, और मैं उन कई जिउतिया में से अपनी जिउतिया नहीं पहचान पाऊंगा और मां से पूछूंगा कि इनमें मेरी जिऊतिया कौन है। मां जानती हैं कि मेरा दूसरा सवाल यह होगा कि बड़ी दीदी या मझली दीदी की जिउतिया तुम क्यों नहीं पहनतीं। और मां हमेशा की तरह कहेंगी कि लड़कियों के लिए जिउतिया नहीं पहनी जाती।

और फिर आज मैं कई सवालों के घेरे में कैद हो जाऊंगा कि इतनी सदियां बीत जाने के बाद भी कोई मां  लड़की की खुशी और सलामती के लिए कोई व्रत क्यों नहीं करतीं, या जिउतिया क्यों नहीं पहनतीं।

मैं इन सवालों के घेरे में कैद इतिहास की कई सुरंगों में घंसता चला जाऊंगा और जब लौटूंगा तो बहुत उदास और थका-हारा। लौट कर अपने छोटे भाई की बेटी के पास जाऊंगा और अपने हिस्से का ओठंगन चुपके से उसे खिलाऊंगा और हिदायत दूंगा कि ये बात किसी से न कहना...। और उसे गोद में लेकर छत पर टहलने निकल जाऊंगा.....।

Monday, October 1, 2012

एक गुमनाम लेखक की डायरी - 27

आज का दिन नील कमल  के साथ बीता। बहुत दिनों से सोच रहा था कि बंगाल के गांव में जाऊं , लेकिन आज जाकर मौका मिला। इसके पहले ट्रेन से आते-जाते गांव की छवि को देख लेते थे। लेकिन आज धान के खेतों, दिवाल पर लगे उपलों, भेड़ बकरियों को, गायों को करीब से देखा। को -ऑपरेटिव के मैनेजर भले आदमी थे, उन्होने एक गाड़ी की व्यवस्था कर रखी थी। 

हम बहुत देर तक गाड़ी में यहां वहां भटकते रहे। एक मंदिर भी गए। साथ वाले आदमी ने बताया कि यह बहुत पुराना मंदिर है, दखिणेश्वर मंदिर से भी पुराना। हमने मां काली को प्रणाम किया, फोटो खींचे और मंदिर की दान पेटी में कुछ रूपए डालकर चले आए।

भारत का हर गांव मुझे एक ही तरह का लगता है- यह गांव भी ऐसा ही लगा। बिहार के गांवों में हरियाली कम है -यहां हरे रंग ज्यादा हैं - पूरा सबूज। हमने लंबे-लंबे खेत देखे। मिट्टी के घर के सामने पक्के के मकान भी देखे और फूस की झोपड़ियां भी देखीं जिसे टाली से छाया गया था। 

अंग्रेजों ने सबसे पहली राजधानी कोलकाता को बनाया था- तीन गांव को मिलाकार कोलकता की स्थापना हुई थी। यह गांव कोलकाता से बहुत दूर नहीं है, इसलिए इसे धूर देहात तो नहीं ही कह सकते, लेकिन गांव में अब भी गरीबी और गंदगी मौजूद है, इसके कई प्रमाण हमें मिले। कोलकाता में रहते हुए आप बंगाल के गांवों को नहीं समझ सकते। कोलकाता में रहने वाले लोगों का रहन-सहन, सोच-विचार बिल्कुल अलग है, इसमें शहरी रंग हैं। लेकिन गांव में अभाव और गरीबी भले हो, लोगों के चेहरों पर अब भी गंवई संस्कार आपको मिल जाएंगे। मैंने नील कमल से कहा - ये देखिए ये गांव तो बिल्कुल मेरे गांव जैसा लग रहा है। घर की दीवारों पर उपले सूखते हुए। खूंटे से बंधी गायें। सड़क पर बेपरवाह धूमती बकरियां। हां, बैल गाड़ी को अब बैल या भैंसे नहीं खींचते  -  उसकी जगह मशीन ने ले ली है। यह अब लगभग भारत के हर गांव में हो गया है।

एक बात और नोट करने लायक है जिसकी आशा मुझे नहीं थी। वह कि एक गांव में संभ्रांत लोगों की बस्तियों से अलग कुछ बस्तियां ऐसी भी देखीं जिनमें रहने वाले लोगों के रंग स्याह थे और वह बस्ती गंदगी से भरी हुई थी। हमने अपने गांव की मुसहर बस्तियों से इसकी तुलना की। मैंने कहा नील कमल से कि यह क्या है। मैं तो सोचता था कि बंगाल  जो नवजागरण हो चुका है, उसका असर गांवों में तो होना ही चाहिए, लेकिन बंगाल के गांव में भी मुझे विषमता और असमानता की झलक मिली। 

मैं वहां किसी ऐसे घर में जाना चाहता था, जिस घर में रविन्द्र और राम मोहन राय की तस्वीर टंगी मिले। लेकिन यह अवसर नहीं आया। मैंने गाड़ी में चलते हुए घर की खिड़कियां झांकने की कोशिश की, लेकिन अंधेरे के सिवा कुछ और दिखायी न दिया।  

नील कमल ने कहा कि यह जो हरियाली आप देख रहे हैं इसको देखकर कोई भी भ्रम में पड़ जाएगा। ये लहलहाते हुए खेत बंगाल के गांवों की खुशहाली की सूचना देते हैं, लेकिन जब आप गांव के भीतर प्रवेश करते हैं तो आपको सदियों पुराने सामंती अवशेष मिलते हैं। अब उन अवशेषों पर राजनीति की रंगत चढ़ गई है। बंगाल में 35 साल के वाम शासन के बावजूद गांव की विषमता दूर नहीं हुई। ये तथाकथित वाम मार्क्स और तामाम प्रतिशील लोगों के नाम पर सिर्फ राजनीति करते रहे। 

मैं चुप था- और मेरे भीतर रविन्द्रनाथ का हाल में सुना हुआ एक गीत गूंज रहा था - आगुनेर परशमणि छुआओ प्राणे, ये जीवन पुण्य करो दहन दाने। मेरे भीतर कहीं कोई कह रहा था कि यह कब होगा कि यह जीवन जो हमें या हम सबको मिला है, वह पावन बनेगा...।

मैं लागातार सोच रहा था, रास्ते पर कार तेज रफ्तार में भागती जा रही थी और मेरे भीतर एक मौन भरता जा रहा था.. एक अंधेरा -जिससे निकलने के रास्ते की तलाश मुझे फिर से शुरू करनी थी।

......

Friday, September 28, 2012

एक गुमनाम लेखक की डायरी-26

सबसे अधिक दुख उन्हीं से मिलता है, जिन्हें आप सबसे ज्यादा प्यार करते हैं। लेकिन वह क्या है  कि आप बार-बार आहत होकर भी उस प्यार को बचाना चाहते हैं। आहत होने के बाद भी आप चुप हो जाते हैं, छोड़ देते हैं कि देखें वह कितना और आहत कर सकता है।  

महात्मा गांधी ने एक बात कही थी - मनुष्य को परिवर्तित किया जा सकता है। मौन रहकर उसे सहकर। उसे सही सलाह और सही परिस्थितियां देकर। हृदय परिवर्तन जैसा कुछ कहते थे वे। बाद में प्रेमचंद ने अपने कथा साहित्य में इसका उपयोग किया। लेकिन मैंने भी इसका उपयोग किया, मतलब मैंने कोशिश की कि एक इंसान का हृदय परिवर्तन हो जाए, लेकिन सालों कोशिश के बाद मैं लेस मात्र भी उसे बदल नहीं सका।

अब मैं शिद्दत से सोचता हूं कि एक इंसान के दिमागी संरचना को कोई भी नहीं बदल सकता - कुछ देर के लिए वह बदला हुआ भले प्रतीत हो लेकिन वह अंततः वही रहता है, जो वह है। किसी खास परिस्थिति में वह बदला हुआ व्यवहार कर सकता है, लेकिन ज्यूं ही परिस्थितियां बदलती हैं, वह आपने स्वभाविक रूप में आ जाता है।

आज इतने सालों बाद मुझे अहसास हो रहा है कि गांधी के उस फार्मुले ने मुझे इतने दिनों तक गुमराह किया। अगर वह फार्मुला नहीं होता तो किसी एक को बदलने के लिए मैं अपना सबकुछ दांव पर न लगाता।

संबंध आपको मुक्त नहीं करते-चारों ओर से बांधते और घेरते हैं- जबकि उन्हें मुक्त करना चाहिए - एक स्वस्थ जीवन के लिए यह जरूरी है। पता नहीं हमारी संस्कृति में सदियों से ऐसा क्या रहा है कि हम यह सबकुछ जानते हुए भी बंधते हैं और जीवन पर निराशा और पीड़ा में भटकते रहते हैं। मुक्ति का कहीं आसरा नहीं। 

वह साहित्य जिसके ताने देते हैं लोग - दोस्त- यार- आस-पास के लोग। वह भी अंततः एक दूरी बनाकर मिलना शुरू कर देता है हमसे।

हम पूछना चाहते हैं अपनी कविताओं से बहुत कुछ। लेकिन वे मौन रहती हैं। जड़।

हमने लेखक होने की बड़ी किमतें चुकाई हैं, फिर भी न लिखना हमें मंजूर नहीं। ऐसा ही कुछ नियति है हमारी.....फितरत भी शायद...।

Thursday, September 27, 2012

एक गुमनाम लेखक की डायरी-25

कल एक विद्यालय में कविता आवृति प्रतियोगिता का निर्णय करने जाना है। कविता आवृति का चलन बंगाल में ज्यादा है, और यह मुझे अच्छा लगता है। कई दिनों कार्यालय में व्यस्त रहा। पूरे आयोजन की अच्छी बात यह रही कि कृपाशंकर चौबे  ने एक अच्छा वक्तव्य दिया और उषा गागंली का नाटक पहली बार देख पाया। नाटक अच्छा रहा। अपने थियेटर के दिन याद आए।
अब कल से डायरी में कुछ अपनी बातें लिखूंगा।
अस्तु..।

Monday, September 24, 2012

एक गुमनाम लेखक की डायरी-24

कभी-कभी शून्य सा घिर आता है। सबके साथ रहते हुए भी आप किसी के साथ नहीं होते। मन किसी अथाह समय में जाकर ठहर जाता है। आप बोलते-चालते रहते हैं, हूं, हां करते रहते हैं। 
समाने वाला समझ भी नहीं पाता कि आप कहीं और हैं।

क्या हर लेखक को इस तरह की शून्यता से गुजरना होता है।  और जब जबरदस्ती वहां से कोई खींचकर लाता है तो आपके अंदर एक अजीब सी खीझ उभरती है। उस खीझ का रहस्य क्या आपके आस-पास के लोग कभी समझ पाएंगे। उन्हें लगता है कि आप किसी निश्चित बात या घटना के उपर खीझे हुए हैं, लेकिन दरअसल ऐसा होता नहीं। आपकी खीझ एक ऐसी अनजान चीज पर होती है, जिसका ठाक-ठीक आपको भी पता नहीं होता।

क्या ऐसे समय में एक लेखक को कहीं दूर एक ऐसी जगह पर नहीं चले जाना चाहिए जहां वह एकदम अकेले उस अथाह समय के साथ रह सके। यह रहना एक रचनाकार और कलाकार के लिए भी कितना जरूरी होता है, इस बात को कितने कम लोग समझ पाते हैं।

क्या कभी कोई ऐसा समय आएगा जब मैं अपने उस अथाह समय के साथ जितनी देर चाहूं रह सकूं। और लौटूं तो मेरे जेहन में शब्दों की एक भारी गठरी हो। वह गठरी जो अब धीरे-धीरे खाली हो रही है। 

उसे भरने का कोई और उपाय भी है क्या...?

समझ में नहीं आता......।

Saturday, September 22, 2012

एक गुमनाम लेखक की डायरी -23

उसने कहा - तुम बुद्धु हो।
मैंने कहा - मैं बुद्धु हूं। मुझे शातिर नहीं बनना।
इसलिए ही तुम अच्छे लगते हो - उसने कहा।
अच्छा लगता हूं, बुद्धु लोग सबको अच्छे लगते हैं,  लेकिन कोई प्यार नहीं करता- मैंने कहा।

वो तो इसलिए प्यार नहीं करता कि तुम कविताओं से प्यार करते हो - उसने कहा।

ठीक है लौटता हूं मैं अपनी कविताओं के पास तब - मैंने कहा।

और चुपचाप लौट आया...।

एक गुमनाम लेखक की डायरी-22

केदार जी की कविताएं पढ़ते समय हमें यह कभी नहीं लगता कि हम कोई लयमुक्त या  छंदहीन कविता पढ़ रहे हैं। कहने की बात नहीं कि केदार जी ने लिखने की शुरूआत छंदबद्ध कविताओं से की थी और एक समय उनके गीत सुनने के लिए लोग सभागारों में बैठे इंतजार करते रहते थे। उन गीतों में क्या था कि नवगीत के पुरोधा कवियों के बीच भी केदार को अलग से सुनने का मन करता था। मेरी समझ से केदार जी के गीतों में एक तरह की भाषिक नवीनता तो थी ही, साथ ही उसमें उसमें अपने लोक, अपने अंचल की वाणी भोजपुरी की मिठास भी शामिल थी। अलावा इसके केदार जी के पास सर्वथा नूतन एक आधुनिक दृष्टि थी जो उनकी कविता में एक तरह की नवीनता के साथ जादू जैसा कुछ पैदा करती थी। 

केदार जी एक इंटरव्यू में याद करते हैं कि कविता से पहला परिचय उन्हें गांव में औरतों के द्वारा गाए जाने वाले गीतों की मार्फत हुआ। वे कहते हैं कि सुबह-सुबह अधनींदी अवस्था में कई बार कानों में भोजपुरी के लोक गीत सुनने को मिलते थे - उन गीतों का असर आज भी मेरे लेखन में है, इसे मैं कितना भी चाहूं, अस्वीकार नहीं कर सकता। उन गीतों में क्या जादू है, यह तो वही समझ सकता है, जो गांव में रहा हो और उस जिंदा जादू को पत्यछ देखा-सुना हो। केदार की कविताओं में एक तरह की सहजता के साथ जो जादू है, कहीं न कहीं उसका उत्स वे लोक गीत ही हैं, जिन्होंने केदार को कहीं गहरे प्रभावित किया है।

उनकी बोलने-बतियाने और उसी जौरान कोई गूढ़ बात कह देने की शैली भी रेखांकित करने लायक है। कई बार वे पाठकों से बातचीत के लहजे में कविता की शुरूआत करते हैं, कई बार पाठक से सवाल करते हैं कि अब क्या किया जाए, कि अब आप ही बताएं कि  अब  तो यह तय करना मुश्किल है इत्यादि। तात्पर्य यह कि उनके लिए पाठक कविता के बाहर की कोई वस्तु नहीं है, वे हर कविता के साथ पाठक को शामिल करते चलते हैं, जैसे कोई बच्चा इधर-उधर न जाए इसलिए उसका अभिभावक अपनी उंगली पकड़ा देता है। एक बार बच्चे ने उंगली पकड़ ली तो अभिभावक अपनी रौ  में अपनी राह चलता जाता है। केदार की कविता की रचना प्रक्रिया को इसी तरह समझने की जरूरत हमें महसूस होती  है।

उपर केदार जी के लोक गीतों से जुड़ाव की बातें कही गई हैं। भोजपुर अंचल में रहने वाला कोई भी व्यक्ति ऐसा नहीं होगा जो लोक गीतों से अपना जुड़ाव न रखता हो। यह अलग बात है कि अब वे परंपराएं मिट रही हैं और लोक गीतों के नाम पर कुछ फूहड़ और अश्लील गीत ही बाजार में रह गए हैं। लेकिन केदार जी का जो समय रहा है, उस समय भोजपुरी लोकगीतों  में एक समृद्ध साहित्यिक एवं काव्यात्मक  तत्व दिखायी पड़ता है। भोजपुरी लोक गीतों के महानायक भिखारी ठाकुर के बारे में केदार जी के संस्मरणों को पढ़ने पर यह बात स्पष्ट हो जाती है कि केदार जी का लोक और लोक गीतों से कितना गहरा जुड़ाव रहा है। यह गौर तलब है कि अपनी कविता की किताब 'उत्तर कबीर व अन्य कविताएं' में केदार जी ने भिखारी ठाकुर नाम से एक बहुत ही मार्मिक कविता भी लिखी है। 

नई कविता के मंच पर भिखारी ठाकुर नामक संस्मरणात्मक लेख उपरोक्त बातों की पुष्टि करता है। तो इस बात पर आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि केदार जी की शुरूआती कविताएं लयबद्ध हैं, उनमें गीतात्मकता है। हमारा कहने का मतलब यह है कि यह लयात्मकता और गीतात्मकता की गूंज हमें केदार जी की हर कविता में सुनाई पड़ती है। इसलिए जब हम आज की उनकी  कविताएं पढ़ते हैं, तब भी हमें लोकगीतों की लय और गीत की मिठास की गूंज उनकी कविताओं में सुन पाते हैं। यही केदार की कविता का जादू है तो सिर चढ़कर बोलता है और यही कारण है कि एक पूरी पीढ़ी उनकी कविताओं से प्रभावित है और पाठकों के बीच उनकी कविताएं असाधारण रूप से लोकप्रिय हैं।

Thursday, September 20, 2012

एक गुमनाम लेखक की डायरी - 21



1.   

केदारनाथ सिंह मेरे प्रिय कवि हैं। इसका कारण  यह नहीं है कि  मेरा शोध-कार्य केदार जी पर ही है। इसका कारण उनकी कविताएं हैं जो जादू की तरह असर करती हैं। केदार की कविताएं मुक्तिबोध की तरह कठिन भी नहीं हैं। सहज होकर गंभीर बातों को कहना और ऐसे कहना कि आपके अंदर एक हलचल और एक बेचैनी पैदा हो जाए, यह इसी एक कवि में मुझे मिलता है। यह कवि आपके साथ बोलते-बतियाते हुए आपको एक ऐसी जगह पर लेकर जाता है, एक ऐसे लोक में जहां से यथार्थ का एक नया चेहरा आपको दिखायी पड़ने लगता है, - नया और भयावह और आपको कई बार तिलमिला देने वाला भी।


केदार जी कि कविताएं  एक ताजगी लेकर उपस्थित होती हैं। उनमें बोलने बतियाने का एक गंवई ठाट है। वहां कोई बड़बोलापन नहीं है, और है भी तो इतना सहज की वह अखरता तो कतई नहीं। वे चाहे मारिशस या सुरिनाम पर कविताएं लिख रहे हों उनके पांव कहीं न कहीं अपनी मिट्टी में इतने गहरे घंसे हुए रहते हैं कि उनकी हर कविता में उसकी सुगंध देखने को मिल जाती है। लेकिन क्या यह इसका प्रमाण है कि केदार की कविताएं  गांव और कस्बे के इर्द-गिर्द घुमती हैं। इस तथ्य को उनकी कविताएं ही नकारती भी हैं। इसे एक तथ्य के रूप में समझा जाना चाहिए कि जिस कवि की अपनी कोई जमीन नहीं है, वह 'कवि' भले हो जाए लेकिन केदार जी जैसा 'बड़ा कवि' तो कहीं से भी नहीं हो सकता। डॉ. शंभुनाथ एक लेख में जिक्र करते हैं कि एक समय हिन्दी के कवियों को विश्व कविता लिखने का चश्का लग गया था। वे आगे यह भी कहते हैं कि साठ के बाद जो भी महत्वपूर्ण कविताएं हैं उनमें से अधिकांश पर इस विश्वबोध का चश्का काम करता है। शंभुनाथ एक गंभीर आलोचक हैं और जाहिर है कि उनके सामने इस तथ्य को कहते समय बहुत सारे कवि होंगे - जाहिर है कि केदारनाथ सिंह भी। लेकिन जिन कविताओं की मार्फत हम केदार को जानते हैं उनमें तो हमें विश्वबोध की कविताओं का चश्का नहीं दिखता। माझी का पुल कविता में कवि को लालमोहर की याद आती है और वह हल चलाते हुए दिखता है और उसे खैनी की तलब लगी है। पानी में घिरे हुए लोग उस अंचल के लोग ही हैं जो बाढ़ की भयावहता को समय-.समय पर अपने कंधे पर झेल चुके हैं। लेकिन केदार की खास विशेषता यह है कि वे गांव और जवार की बात करते हुए भी एक आधुनिक भावबोध से संवलित आधुनिक कवि हैं जिनकी कविताओं में समय की गूंज साफ-साफ सुनाई और दिखायी पड़ती है। हां, इस बात की ओर भी इशारा करने की जरूरत तो है ही कि उनके यहां लोक और नागर  के बीच लोक संस्कृति और आधुनिकता के बीच एक द्वद्व, एक 'क्लैश' भी दिखायी पड़ता है और यह उद्देश्यहीन नहीं है। 

इस कवि ने कभी भी यह नहीं माना कि भारतीय आधुनिकता बाहर से आयातित की हुई कोई अवधारणा है, बल्कि उसका कहना है कि भारतीय आधुनिकता का विकास भी अपने तरीके से ठेठ भारतीय संदर्भ में हुआ है। मेरे समय के शब्द में एक जगह वो साफ-साफ लिखते हैं जिससे हमारी उपरोक्त बातों को बल मिलता है। वे लिखते हैं - आधुनिकता के विकास की प्रक्रिया  की पहचान और पुनरावलोकन हमें  भारतीय संदर्भ में करना चाहिए।  उनका तर्क है कि आधुनिकता संबंधी बहस खत्म हो गई है लेकिन  आधुनिकता की प्रक्रिया अपने खास ढंग से पूरे भारतीय संदर्भ में आज भी जारी है। यह स्थिति  पश्चिम से थोड़ी भिन्न है और इसलिए ठेठ भारतीय भी। यह एक विकासशील देश की अपनी बनावट और उसकी खास जरूरतों का महत्वपूर्ण हिस्सा है, जिसे सही संदर्भ में रखकर देखा जाना चाहिए । आगे वे अपनी आधुनिकता में लोक मूल्यों की संश्लिष्टता का  उद्घाटन करते हुए लिखते हैं कि  हमारा देश सामंतवाद के विरूद्ध एक लंबे संघर्ष के बावजूद भी, अपने  मूल्यों और आचरण में  सामंती अवशेषों से पूरी तरह मुक्त नहीं हो पाया है। उसी अवशेष का एक रूप है जाति व्यवस्था, जो हमारे चारों ओर है।  अपने सारे मानववाद के बावजूद, हम एक जाति विशेष के सदस्य माने जाते हैं। यह हमारी सामाजिक संरचना की एक ऐसी सीमा है, जिससे कवि की संवेदना बार-बार टकराती और छत-विछत होती है। वे स्वीकार करते हैं कि उनकी आधुनिकता में यह खंरोच भी शामिल है। 


कहने का आशय सिर्फ इतना है कि उस खंरोच को समझे बिना केदार की कविताओं को समझना और उसका सटिक मूल्यांकन करना लगभग असंभव है। क्योंकि लोक का ठेठपन और पूर्णतः आधुनिक होने के बावजूद उनकी आधुनिकता की एक चिंता यह भी है कि उसमें 'लालमोहर' कहां है। लालमोहर को समझे बिना केदार की कविताओं को समझना समंदर के किनारे खड़े होकर लहरें गिनने जैसा है। जाहिर है कि इस दृष्टि से जब हम केदार की कविताएं पढ़ेंगे  तो जो हमें मिलेगा वह बकौल केदारनाथ सिंह -

इसमें तुम्हें जंगली पत्तों की खुशबू
और एक जानवर के रोओं की गरमाहट मिलेगी
तुम्हे एक मजबूत पत्थर मिलेगा
जिसपर तुम बैठ सकते हो
पत्थर को छुओ
तुम्हें पानी का संगीत सुनाई पड़ेगा
एक पत्ता उठा लो
और तुम पाओगे तुम उसकी नसों में 
खून की तरह बह रहे हो
तुम बाहर निकलोगे 
और तुम्हे सूरज मिल जाएगा। 
.....