Thursday, August 30, 2012

एक गुमनाम लेखक की डायरी - 12


और लोगों के जीवन पर कविता  का और कविता पर जीवन का प्रभाव कैसा पड़ता है, यह यहां कहना उद्देश्य नहीं है। लेकिन अपनी कहूं तो मेरे लिए कविता और जीवन दोनों साथ-साथ चलते वाले जरूरी उपादान हैं। कि जीवन पहले चलता है - कविता उसके पीछे लग जाती है। इसलिए मेरी कविताओं में हर रोज के दुख और खुशी का शामिल हो जाना मुझे कभी भी अस्वाभाविक नहीं लगता।

जैसे वह लड़का  जो मरे पास के चेयर पर बैठता है, उसे आज पहली बार वेतन मिला है, वह  हाथ में रूपये लेकर ऐसे उत्साहित हो रहा है, जैसे एक बच्चे के हाथ में  कोई कीमती खिलौना होता है। मैं लाख चाहूं तब भी उस बच्चे हो गए लड़के की हरक्कतों को इग्नोर नहीं कर सकता। उसके सहारे मैं एक दूसरे समय में पहुंचता हूं जब पहली बार मेरे हाथ में  चार सौ रूपए का एक चेक आया था। उस समय मैं कोलकाता के जयपुरिया कॉलेज में अंशकालिक प्रवक्ता था। तब हमें महीने के चार सौ रूपए मिलते थे। बैंक में अकाऊंट नहीं था। मैं उस चेक को लेकर बार-बार देखता था और उसपर गोल-गोल अक्षरों में लिखे चार सौ रूपए। मैं चाहता था कि वे लिखे हुए चार सौ जादू से चार हरे-हरे नोटों में तब्दील हो जाएंगे। उस चेक को पैसे में बदलने के लिए पहली बार बैंक में खाता खुला था, और जिस दिन वह रूपए मेरे हात में आए उस दिन मैं दुनिया का सबसे अमीर आदमी था। वह अमीरी का अहसास मुझे किसी कविता से नहीं मिला, और दूसरे अहसास कविताओं को लेकर हैं, कहानियों को लेकर हैं लेकिन पहली कमाई के हाथ में आने का अहसास इतना अद्वितीय था कि उसकी तुलना और किसी अहसास से करना बेमानी है।

मेरे पास बैठने वाला लड़का अपने नोटों को स्कैन करता है, उसे पेन ड्राइव में कॉपी करता है। वह उसे शायद जीवन भर रखना चाहता है अपने पास सम्हाल कर। मैं सोचता हूं कि उस समय मेरे पास स्कैनर होता तो शायद मैं भी ऐसा ही कुछ करता। लेकिन उन चार सौ रूपए के साथ मैं मनीषा जी से मिलने गया। हमने फूट-पाथ पर झाल मुढ़ी खाए, अंगूर खरीद कर खाया, और ढेर सारे मंसूबे बनाए। चार सौ रूपए कितने दिन तक रहते। खत्म भी हुए। लेकिन उनके होने का अहसास हमारे दिलों में हमेशा के लिए कही ठहर गया। आज इस लड़के को देखा तो एक कविता जैसा कुछ जिंदा हो गया।

कविता शब्द से नहीं बनती। जिन शब्दों को कविता में एक कवि लिखता है वे शब्द सबके पास होते हैं, लेकिन कविता सिर्फ शब्द और भाषा नहीं होती। कविता  उस लड़के के चेहरे की हंसी होती है, जो पहले वेतन को हाथ में पाकर उभरती है, मां के माथे का सकून होती है जब वह अपने बेटे के सिर पर हाथ फेरती है, लहलहाती फसल की एक किसान के चेहरे पर उभरी प्रतिबिंब होती है।

इसलिए मैं कहता हूं कि कविता को कभी भी शब्दों की मार्फत न तो समझा जा सकता है और ना ही लिखा जा सकता है। यही कारण है कि सही मायने में कविता लिखने वाले और समझने वाले संख्या में बहुत कम हैं। 

समय जितना निर्मम और अत्याचारी होता जाएगा, कविता लिखने और कविता समझने वालों की संख्या में कमी आती जाएगी। लेकिन कविता की जरूरत तब और अधिक होगी। 

..क्योंकि हर समय में कविता लिखना या कविता पढ़ना मनुष्य होने की पहली शर्त है..

एक गुमनाम लेखक की डायरी-11

मित्र लोग कहते हैं कि मैं कवि हो गया हूं। मुझे पूरा विश्वास है कि वे मुझे 'कवि' व्यंग्य में नहीं कहते। उनकी मंशा पर संदेह करने की कोई वजह नहीं है। लेकिन मेरे मन में बार-बार यह सवाल उठता है कि क्या सचमुच कुछ कविताएं लिखने से कोई कवि हो जाता है? 


मुझे लगता है कि एक पूरी उम्र बीत जाती है कविता लिखते-लिखते लेकिन फिर भी कुछ एक लोग होते हैं जो कवि बन पाते हैं। सिर्फ कविता लिखने से कोई कवि नहीं बनता। हो सकता है कि कुछ लोग दो चार कविताएं लिखकर और जोड-तोड़ कर के पुरस्कार वगैरह पा जाएं और अपनी प्रयोजित चर्चा करवा लें, लेकिन जो सही मायने में कवि होता है, वह समय की सीमा पार कर बार-बार उभर कर सामने आता है। इस समय चाहे वह किसी खोह में दबा हो, लेकिन समय आने पर वह और उसकी कविता लोगों के लिए ताकत बन कर  उभरेगी - उभरती है।

कवि  कौन है, इसके फैसले को इतिहास पर छोड़ देना चाहिए। इतिहास का हंटर सबसे मजबूत होता है, कुछ बातों को छोड़कर हमें इतिहास पर भरोसा करना चाहिए कि वह न्याय करेगा। हां, यह जरूर याद रखना चाहिए कि इतिहास भी अंततः एक मनुष्य ही लिखता है। लेकिन यह भी एक तथ्य है कि इतिहास की कुछ घटनाएं मनुष्य के कमजोर हाथ में नहीं समातीं, वह अपने तरीके से घटित होती हैं। और उनका अपना तानाशाही रवैया भी होता है।



इसलिए जब कभी मुझे कवि कहता है तो मैं झेंप जाता हूं। सिर्फ यह कारण नहीं कि अबतक की मेरी लिखी हुई कविताएं मुझे उस तरह संतुष्ट नहीं करतीं, बल्कि इसके पीछे कई अन्य कारण भी काम करते हैं- कुछ कारणों के बारे में मुझे खुद भी कुछ पता नहीं।

जब-जब मुक्तिबोध और निराला सरीखे कवियों को सामने पाता हूं, मेरा अब तक का लिखा-पढ़ा नाखून के बराबर भी नहीं ठहरता। यह मेरी विनम्रता नहीं है कि मैं ऐसा कह रहा हूं, बल्कि यह एक ऐसी सच्चाई है, जिससे मुझे हर रोज लागातार लोहा लेना पड़ता है।

मैं उन लोगों को प्रणाम करता हूं जो मुझसे भी अधिक विपरीत परिस्थियों में लिख रहे हैं, जिन्हें कोई नहीं जानता। जिन्हें अपने को जनाने की भूख भी नहीं। मैं कल शायद कवि बन भी जाऊं लेकिन वे लोग जो बिना किसी स्वार्थ के कला के कर्म में लगे हुए हैं, उनके सामने यह यह माथ हमेशा नत रहेगा..।

Tuesday, August 28, 2012

एक गुमनाम लेखक की डायरी-10

कभी-कभी सोचता हूं कि कविता क्या काम करती है। जैसे हर चीज का अपना एक वजूद और जगह नियत होता है, एक अर्थ और दायित्व होता है। उस तरह कविता का भी कोई दायित्व है?

सोचता हूं, तब अधिक, जब कोई कह दे कि यार क्या कविता को लिए पड़े रहते हो, बहुत सारे जरूरी काम हैं जीवन में करने को। मैं सोच में पड़ जाता हूं कि आज भी हिन्दी में कविता लिखने को जरूरी काम क्यों नहीं समझा गया। 

क्या सचमुच हमारे जीवन और मौजूद समय में कविता की प्रासंगिकता समाप्त हो गई है? और लोगों का कुछ नहीं जानता, लेकिन मेरे कविता लिखने के कारण मेरे गांव या घर में किसी ने मुझे सम्मान की नजर से नहीं देखा। 

मेरी कविता की पहली किताब जब प्रकाशित हुई तो सबसे पहले मैंने उसे पिता को दिखाया - उन्होंने किताब देखा और पूछा कि पैसे भी मिलेंगे? मैं चुप रह गया। कुछ देर बाद बहुत धीमें स्वर में मैंने कहा कि रॉयल्टी मिलेगी दस प्रतिशत की। मैंने यह नहीं कहा कि सौ प्रतियां मैंने खुद प्रकाशक से खरीदी हैं और उसके लिए दस हजार देने पड़े हैं। मां  अनपढ़ है, पहले चिट्ठी पढ़ लेती है लेकिन अब भूल गई है। उसने किताब के शीर्षक को पढ़ने की कोशिश की लेकिन पढ़ नहीं पाई। उसने पैसे की बात नहीं की । ढेर सारा आशिर्वाद दिया और कहा - खूब आगे बढ़ो, दुनिया में खूब नाम करो। घर का नाम दुनिया भर में बिखेरो। 


मैं मां के निर्दोष और सोझबक बातों को सुनकर अंदर तक पिघल जाता हूं। मां कविता नहीं समझती। वह अपने बेटे को आगे बढ़ते हुए देखना चाहती है।  मैं उदास हो गया हूं, उदास और अकेला। पिता ने अब तक मेरी कविताएं नहीं पढ़ीं शायद। मैंने कभी पूछा नहीं इस बारे में और उन्होंने बताया भी नहीं।

मेरा एक सहपाठी अमेरिका चला गया है। गांव में उसकी बहुत चर्चा हुई। मुझे कविता के लिए सूत्र सम्मान मिला, कहानी की किताब पर भारतीय ज्ञानपीठ का प्रतिष्ठित सम्मान मिला, यह बात मेरे घर वालों के अलावा गांव में कोई नहीं जानता। दूसरे गांव की बात तो सोचना ही बेमानी है। 

मुझसे ज्यादा लोग उस लड़के को जानते हैं जो भोजपुरी में लोक गीत गाता है।  मुझे इसका दुःख नहीं कि लोग मुझे नहीं जानते। दुख इस बात का है कि कोई एक कविता लिखता है, और उसके  लिखे को बाहर के कुछ लिखने पढ़ने वाले लोग तो जानते हैं लेकिन उनके अपने जमीन के लोग जिनके बारे में वह कविताएं लिखता है, वे नहीं जानते। यह बात मुझे बेहद परेशान करती है। 

अच्छा ठीक है कि कविता जीवन के अन्य जरूरी चीजों की तरह जरूरी नहीं लगती। लेकिन मैं यह सोचता हूं तो अंदर तक कांप जाता हूं कि क्या हम एक कविताहीन समय में रह रहे हैं। एक ऐसे समय में जब सिनेमा, टेलिविजन और तरह-तरह के गीत-गाने ज्यादा महत्वपूर्ण हैं, हो गए हैं, और कविता  इस समय एक हासिये की चीज है। हर बार इस सच्चाई का जब सामना होता है, मैं इसे स्वीकार नहीं कर पाता और गहरे सोच में डूब जाता हूं।

कविता-साहित्य के नाम पर हम लोकगीतों और तुलसी-कबीर- मीरा से आगे क्यों नहीं बढ़ पाए? मेरे गांव का वह दुलारचन जो चइता और सिनरैनी गाता है, क्या वह किसी दिन मेरी कविता को समझ पाएगा? मेरी वे बहनें मेरे भाई मेरे अपने लोग जिनके लिए इतनी दूर रहते हुए मेरे मन में एक हूक उठती है, वे किस दिन मेरी कविताओं को समझ पाएंगे।

पैंसठ साल की आजादी के बाद भी मेरे गांव के पचास प्रतिशत लोग अनपढ़ हैं और अब तक मेरे गांव में बिजली नहीं गई। वहां उस जगह कविता की रोशनी कब पहुंचेगी?

कविता का मतलब जो मैंने समझा है - वह विद्रोह है। जब आप कविता लिखने के लिए कलम उठाते हैं तो विद्रोह करते हैं, उस अन्याय के खिलाफ दो सदियों से जारी है। सच के हक में बोलने का नाम कविता है-साहित्य है, तमाम कलाएं हैं। जो उन्हें पढ़ता है वह गर्व के साथ और मनुष्य की तरह  जीना सीखता है। कविता का और काम क्या है?

मुझे पूरा यकीन है कि पिता अगर कविता को प्रेम करते तो उनसे मेरे मतभेद बहुत कम होते। 

सच्ची कविता रक्त में धीरे-धीरे भिनती है और हमारी दृष्टि को बदल कर रख देती है। समय और समाज कविता से जितना दूर होता जाएगा, वह निर्मम और मक्कार होता जाएगा। मनुष्य को मनुष्य बने रहने के लिए हर समय में कविता किसी भी चीज से ज्यादा जरूरी चीज है.. और इस बात को कहने में मुझे कोई झिझक या संकोच नहीं है...।

एक गुमनाम लेखक की डायरी-9

समय के कई हिस्से मेरे लिए तकलीफ देह हैं।  वे सपने जिसे शहर ने दिए, उनके कभी पूरे न होने का मलाल है। आज मिस्टी से बहुत दिन बाद बात हुई, वह बंगाली लड़की है जिससे मेरी मुलाकात याहू मैसेंजर पर हुई थी। तब मैं कविताओं से दूर लोक गीतों में भटक रहा था। मेरे लोक गीतों के दो अल्बम आ चुके थे। मेरे अंदर भी कहीं न कहीं मनोज तिवारी जैसा कुछ बनने का एक सपना जन्म ले चुका था। यह वह समय था जिस समय को बाद के दिनों में मैं कोमा का समय कहता हूं। 4 साल के लगभग मैंने एक भी कविता नहीं लिखी।  वे जो कारण थे उनको एक दिन फेसबुक में मैंने दोस्तों को शेयर किया था मैं चाहता हूं कि उसे आपसे भी शेयर करूं..। लेकिन बहुत  ढूंढ़ने के बाद भी वह नहीं मिलता। फिर कभी चर्चा होगी उसकी। बातों-बोतों में कई बातें निकल आती हैं। वह बात भी कभी न कभी निकल ही आएगी।

मिस्टी बहुत सुंदर नहीं होकर भी बहुत सुंदर है। वह कविता समझती है - पुस्तक मेले में जब हम दोनों बांग्ला की किताबें खरीद रहे थे तो ुसने कहा था - तुम्हारी कविता की किताब जब आएगी तो उसका बांग्ला अनुवाद मैं करूंगी। इसके बाद बहुत समय गुजर गया। हमारी बातें बंद हो गईं। और हमारे संबंधों के बीच कई एक बड़ी दिवारें खड़ी हो गईं जो उसके मेरे वसूलों की थीं। इस देश में आज भी स्त्री-पुरूष का संबंध एक जगह पर आकर बेहद जटिल हो जाता है। कहना चाहिए कि वह जटिलताएं हमारे बीच भी आईं।

हटात मैंने एक दिन  मिस्टी को मोबाईल पर संदेश भेजा।  मेरी कविता का अनुवाद करोगी? उसने  हां कहा।  लेकिन उसने यह शर्त लगा दी कि वह कभी बात नहीं करेंगी। बिना बात किए कविता की कई जगहों पर विमर्श किए यह अनुवाद संभव नहीं था। मैंने कहा कि बिना बात किए यह संभव नहीं होगा। मैं फोन करता वह फोन पर कई-कई दिन मेरी बातें सुनती रही। कोई जवाब नहीं दिया। वह मोबाइल पर संदेश भेजती- कविता के बारे में पूछती तब मैं फोन कर उसे बता देता। लेकिन आज पहली बार वह बोली।

इतने दिन बाद जवाब देना,  उसकी अवाज सुनना, कानों को अच्छा लगा।
मैं देर तक उसको कुछ कविताओं के अर्थ समझाता रहा। 
उस लड़की को लेकर मेरे मन में एक अपराध बोध भी है। मुझे कई-कई बार लगता है कि वह मुझे बेहद प्यार करती है, एक ऐसा प्यार जिसके बारे में मैंने शरत्चंद्र की कहानियों-उपन्यासों में पढ़ा है। उसकी नजर में मैं शरतचंद्र का चरित्रहीन हूं।
उसने आज कहा - मैं कभी तुमसे बात नहीं करती। तुमने पूछा न कि फिर अनुवाद क्यों कर रही हो। इसका उत्तर यह है कि मैंने वादा किया था कि तुम्हारी किताब का अनुवाद मैं करूंगी। तुम वादा कर के भूल गए। मैं वादा कर के कैसे भूलूं...।

उसकी बातें मुझे अंदर तक हिला गईं। मैं सोचने लगा क्या सचमुच मैंने मिस्टी के प्रति कोई अपराध किया है..। सोचता हूं तो सोचने का कोई छोर नहीं मिलता... अंतहीन है यह....।

Sunday, August 26, 2012

एक गुमनाम लेखक की डायरी - 8

रात बहुत बूरे सपने आए। 
पहली बार तो नहीं ही आए। अक्सर आते रहते हैं। अब अच्छे सपने नहीं आते। बुरे ही आते हैं। 

बहुत जमाने पहले के एक समय में सपने हमारे लिए सबसे अच्छे मनोरंजन के साधन थे। सुबह जब सब लोग द्वार पर इकट्ठे होते तो अपने-अपने सपने सुनाते। सबके सपने सबलोग मनोयोग से सुनते थे। कई लोग जिन्हें सपने नहीं आते थे उनका सपना सबसे अच्छा होता था। वे झूठ-मूठ सपने गढ़ लेते थे। सच्चे सपने झूठे सपने के आगे फीके पड़ जाते। हमारा बच्चा मन झूठे सपनों पर विश्वास कर लेता। सपने झूठे होते हैं, ये बाद में पता चला। रात में देखे गए और जागती ऑंखों से देखे गए सपने में तफात होता है यह हमने बाद में जाना। जानना भी कई तरह से खतरनाक होता है, इसे भी जाना जब एक लड़की ने समझाया उस कविता का अर्थ जिसे सर्वेश्वर दयाल सक्सेना ने लिखा था - कुछ भी ठीक से जान लेना अपने आप से दुश्मनी ठान लेना है।

हमने पुराने जमाने के सपनों को एक-एक कर मिटते-ढहते देखा। हमारे सपने में परियां नहीं थी। महल नहीं थे। राजा-महाराजा के सपने नहीं थे। हमने ढेर सारी पसंद की मिठाइयां  खाने के सपने देखे। सिपाही की नौकरी और कुछ पैसे के बाद मां पिता को तीरथ-वरत कराने के सपने देखे। हमने यह भी सपने में देखा कि हमने जो आम का अमोला रोपा था, वह वृक्ष बन गया है, बड़ा सा और उसमें ढेर सारी मंजरियां उग आई हैं। अमरूद का वह पेड़ जो कभी बड़ा नहीं हो सका- वह बड़ा हो चुका है और ओझा बाबा के यहां नाली से निकालकर और धोकर अमरूद खाने से हम बच गए हैं।  कि हमारे गांव तक आने वाली सड़क जो बरसात के दिनों में कीचड़ की वजह से बंद हो जाती थी, वह अब पक्की की बन गई है और एक हरे रंग की सायकिल पिता ने खरीद कर दिया है और हम सब उस सायकिल को बारी-बारी चला रहे हैं। सबसे तेज मैं सायकिल चलाता हूं के सपने बार-बार रात में आते थे।

हमने कविताओं के सपने नहीं देखे। देवताओं के सपने नहीं देखे। पता नहीं और कितनी जरूरी चीजों के सपने नहीं देखे। उन्हीं सपनों के साथ एक दिन हमें कोलकाता लाया गया- यह तर्क देकर कि हम वहां गांव में नान्हों की संगत में बिगड़ रहे हैं। यहां आकर हम एक कमरे में बंद हो गए।

तब हमारे सपने में रेलगाड़ी आती थी जो हमारे गांव की ओर जाती थी। तब हमारे सपने में सपने सुनाने वाले गिरिजा, ददन, सुरेश, हीरालाल और सुरजा सब आते। तब हम सपने में अपने गांव में होते।

आज का सपना बहुत बुरा था। 
लेकिन क्या ही अचरज है कि  मैं सपने में अपने गांव में था। मेरे सपने में कुछ लोग थे जो शहरी लगते थे, उनके हाथों में अत्याधुनिक ढंग के हथियार थे, जिनके नाम मैं नहीं जानता। वे मेर पीछे पड़े हैं। वे मुझे मार डालना चाहते हैं। मेरे पिता मुझे बचाने के लिए मुझे कोनसिया घर में बंद कर चुके हैं। मैं अपने पुराने घर के खपड़े से होते हुए गांव की गली में कहीं खो जाता हूं। गांव की सारी गलियों के बारे में मुझे पता है। मैं भिखारी हरिजन के घर में हूं। उनकी  अधेड़ पत्नी मुझे अपने हाथों से गुड़ की चाय पिला रही है।

भागते समय मैं कुछ भी लेकर नहीं भागता। मेरे हाथ में किताबें हैं। कुछ देर बाद देखता हूं कि मैं नदी के किनारे हूं और उस नदी का नाम हुगली नदी है। मुझे एक आदमी मिलता है जो बोट चला रहा है, मुझे उस पार जाना है, वहां उस पार मेरा एक घर है। मैं देखता हूं कि वह बोट खेने वाला आदमी अचनाक  पुलिस में बदल जाता है। वह मेरी किताबें छिनना चाहता है। मैंने जो कविताएं लिखी हैं उसे छिनकर गंगा में बहा देना चाहता है। 

मैं भागता हूं, बेतहासा और और नदी में उतर जाता हूं। नदी में डूब्बी मारता हूं। और देखता हूं कि अपने गांव के भागर में हूं। वहां मेरे बाबा खड़े हैं। ुनके हाथ में रामचरितमानस है। उनके वस्त्र साधुओं की तरह है। उन्हें देककर उनके जिंदा होने पर मुझे अचरज होता है। मैं देखता हूं कि मेरी किताबें भीग गई हैं। लिखे हुए अक्षर की सियाही पन्नों में फैल गई है...। मैं बाबा को प्रणाम भी नहीं करता और धूप-धूप चिल्लाते हुए आगे बढ़ जाता हूं...।

सुबह से यह सपना मुझे परेशान किए हुए है। मां से कहा- मैंने बुरा सपना देखा आज। मुझे मत कह मझला, पानी में जाकर कह। बुरे सपने पानी में कहने से उनका दोष नष्ट हो जाता है। 

मैं ऑफिस के रास्ते हुगली नदी को देखता हुआ गुजर जाता हूं। हुगली नदी को प्रणाम करता हूं, अपना बुरा सपना नहीं कहता। सोचता रह जाता हूं और पहली-दूसरी गाडी छोड़कर तीसरी गाड़ी में सवार हूं..।

घड़ी देखता हूं और सोचता हूं...- आज फिर ऑफिस देर से पहुचूंगा।

एक गुमनाम लेखक की डायरी - 7

कभी-कभी लगता है कि पूरा दमाग शब्दों से खाली हो चुका है, एक भी शब्द नहीं बचा इस पूरे संसार भर में। हम मौन हो गए हैं कि फिर से उस आदिम युग में चले गए हैं जहां हम संकेतों में बात करते थे। इतना बोला और कहा गया है कि  अब बोलने कहने की हिम्मत नहीं होती कई बार। हम एक ही समय में एक सभ्य और एक आदिम युग में कैसे रह और जी सकते हैं, यह एक कलाकार से अधिक कौन समझ सकता है...।

और कलाकार क्या कोई ईतनी आसानी से बन सकता है।  कविताएं लिखने वाले क्या हर शक्स को कवि कहा जा सकता है, गाने वाले को गायक या लिखने वाले को लेखक। मेरे लिए कवि बनने और कलाकार बनने में एक पूरी उम्र खर्च हो जाती है, फिर कोई एक बिरला कवि-कलाकार बन कर उभरता है। खत्म हो जाती हैं नस्लें, नाम गुम जाते हैं, केन्द में चमकने वाले नामवर लोग समय की अंधेरी खाइयों में अलोपित हो जाते हैं, टिके रह जाते हैं कुछ लोग जो सचमुच के लोग होते हैं और उनकी कला  और कविता हर समय की जरूरत बन जाती है। मैं एक गुमनाम लेखक-कवि {?}ये सारी बातें सोचूं भी तो कैसे। हूं पर नहीं  नहीं..। मैं सिर्फ शब्दों से प्यार करता हूं... और शब्दों से प्यार करते हुए कोई कितना दूर जाएगा...। 

मेरा एक कहने को घर है और इतनी सारी जिम्मेवारियां और एक बड़ी जिम्मेवारी इस मिट्टी के लिए भी है, जिसकी धूल मेरे शरीर में आज भी घंसी हुई है।

मैं कवि-कलाकार बनने के लिए कभी लिखूं भी तो कैसे। यह चाहत मेरे भीतर आए भी तो कैसे...?

मैं तो अपनी मिट्टी का कर्ज चुकाने के लिए लिखता हूं। मेरे बड़े भाई तो इलाज के अभाव में मर गए और उनका तो छोटा मोटा इलाज भी हुआ लेकिन उनके बारे में जब सोचता हूं जिनके घर कई-कई शाम चूल्हे नहीं जलते, इलाज की बात तो दूर,  तो अपने कवि होने पर शर्म आती है। 

एक कविता तो ऐसा लिखूं जिसमें शब्द न हों, कला न हो, लय और तमाम कविता के लिए जरूरी चीजें न हों, लेकिन वह कविता मेरे गांव के सबसे गरीब परिवार के घर चूल्हे में आग की तरह जले, तसली में चावल की तरह डभके... एक बच्चे के चेहरे पर हंसी की तरह खिल-खिल आए। और एक भूखी आंत में पहुंच कर रक्त के रूप में तब्दील हो जाए। 

उसके पहले अगर मुझे कोई कवि मानता हैं तो मानता रहे, मुझे अपने लिखने पर तब भी अफसोस ही रहेगा....।

Saturday, August 25, 2012

एक गुमनाम लेखक की डायरी-6

दूर देश एक शहर में एक परी उदास है..। उदास और बिमार। यहां इतनी दूर से सिर्फ उसकी लड़खड़ाती आवाज सुन पाता हूं। तकनीक ने बस इतनी भर सुविधा पदान की है हमें।
दुख की एक घायल चिड़िया बार-बार उस शहर की दिशा में उड़ती है और वापिस चली आती है। 
कहने को हम आजाद हैं लेकिन हमने स्वयं को कितनी-कितनी जंजीरों में बांध रखा है। 
 एक साथ कई-कई उदासी, कितने दुख और कितने-कितने अकेलेपन को साथ लिए जीने के अभ्यस्त हो चुके हैं हम..।

कभी-कभी मैं शिद्दत से सोचता हूं कि कि शब्द नहीं होते और कविता का आसरा नहीं होता तो हमारे जैसे लोग कहां जाते...किसकी शरण में..।

हमारा जीना ही तो शामिल है कविता में..। हम जो जीते हैं वही कविता है...और कुछ भी  तो नहीं....।


Thursday, August 23, 2012

एक गुमनाम लेखक की डायरी - 5


24.08.2012, शुक्रवार

कल किसन कालजयी से मिला। वहीं हितेन्द्र पटेल और आशुतोष जी भी थे। किसन कालजयी ने मेरी कविता की किताब प्रकाशित की है। हम पहली बार मिल रहे हैं- किसन जी ने कहा। अच्छा, आप मिले नहीं कभी और आपने विमलेश जी कि किताब छाप दी। यानि हिन्दी साहित्य में यह भी होता है, यह बात हमें आश्वस्त करती है - आशुतोष जी की आंखों में विस्मय था। 

उन्हें कॉफी हाउस जाना था। लेकिन मैं नहीं गया। संकोचवश । अतुल जी से मिलना भी था और जल्दी घर लौटना था। कॉलेज स्ट्रीट से लौटने में मुझे डेढ़ घंटे लगने थे।

मैं महत्मा गांधी रोड के फूटपाथ से लौट रहा था।  सामने एक सीडी बेचने वाला दिखा। मैंने कुछ सोचते हुए उससे पूछा - रवीन्द्रनाथ के गीत हैं हिन्दी में। वह समझा नहीं - उसने फिर पूछा - किसका? मैंने फिर वही दुहराया - रवीन्द्रनाथ टैगोर के गीत।  क्या कहा आपने रवीना टंडन के गीत? - वह बोला। मैं बहुत उदास हो गया और बिना कुछ जवाब दिए फूट-पाथ पर आगे बढ़ गया।

मैं कोलकाता में था। और सोच रहा था कि जिस तरह रवीन्द्र को यहां के लोग पूजते हैं, उससे तो उस आदमी को रवीन्द्रनाथ का नाम मालूम होना चाहिए था। लेकिन उसे शायद नहीं मालूम था।  इस देश की बिडंबना क्या रही। बांग्ला में फिर भी रवीन्द्र को तो लगभग सबलोग जानते हैं, लेकिन क्या हिन्दी भाषा में निराला और प्रसाद को लोग उसी तरह जानते हैं। क्या कभी यह हो पाएगा इस देश में कि हम साहित्य को  भी जीवन की जरूरी चीजों का हिस्सा बनाएंगे।

हिन्दी भाषा के संदर्भ में कहूं तो मुझे बार-बार लगता है कि हिन्दी साहित्य का जिस तरह विकास हुआ उसी अनुपात में हिन्दी पट्टी के लोगों  में साक्षरता और उससे भी अधिक साहित्यिक साक्षरता का विकास नहीं हुआ। इसके बहुत सारे कारण हो सकता है, गुरूओं ने गिनाए हों, मुझे इसकी जानकारी नहीं है। 

लेकिन यह जरूरी था कि साहित्य के विकास के साथ आम आदमी की शिक्षा और उसके मानसिक सोच में विकासात्मक परिवर्तन होता। लेकिन यह न हो सका। और आज भी यह हो नहीं सका है। साहित्यकार आज भी हिन्दी पट्टी के समाज में एक अजूबा चीज है। कवि जी है। हिन्दी पट्टी में व्यंग्यात्मक लहजे में कहा जाता है कि कविजी आ रहे हैं।

नहीं तो क्या कारण है कि बचपन से ही मेरे मन में ये बात बैठी हुई थी कि और कुछ भी बनना है, लेकिन कवि नहीं बनना है। अगर ऐसा हुआ तो मेरा नाम भूलकर लोग मुझे भी कविजी कहना शुरू कर देंगें। और यह कविजी कहने के बाद दांत निपोर कर ऐसे हंसेंगे जैसे कह रहे हों कि साले तुम निकम्मे हो, इसलिए कवि बने फिरते हो। 

यही कुछ कारण रहे होंगे जब होश आया तो मैंने उपन्यास अधिक पढ़े। और पहली बार जब लिखना शुरू किया तो उपन्यास ही लिखना शुरू किया। यह अलग बात है कि वह उपन्यास गुलशन नंदा और वेद प्रकाश शर्मा और सरला रानू के उपन्यासों के प्रभाव का नतीजा था। जिस डायरी में वह उपन्यास लिखा जा रहा था, और जिसके  आठ अध्याय पूरे हो चुके थे, वह कहीं खो गई है। 

कविता बहुत अच्छी हो सकती है यह मुझे सीमा विजय की अवृति ने बहुत जमाने बाद कॉलेज के दिनों में सिखाया। उसने अवतार सिंह पाश की एक कविता की अवृति की थी और मैं अंदर तक झनझना गया था। वह मेरे कॉलेज का पहला दिन था। एक और कविता की आवृति वह करती थी - कभी मत करो माफ। यह कविता सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की थी। 

इन दो कविताओं की अवृति ने फिर से मुझे झंकझोर कर कविता की दुनिया में वापसी की।  बाद में तो इससे ऐसे जुड़ा कि अब चाहकर भी निकलना संभव नहीं है। मेरे अंदर जब तक एक आदमी जिंदा है जो रोते हुए अपने गांव से इस महानगर में आया था, तब तक मुझे विश्वास है कि मेरे अंदर की कविता नहीं मरेगी। इसकी परवाह मुझे नहीं है कि लोग मुझे कवि समझेंगे या मेरे लिखे को कविता समझा जाएगा कभी। लेकिन एक विवशता जो मेरे साथ हो ली है। उससे दूर होना अब लगभग नामुंकिन लगता है।

एक मित्र की बात याद आती है - वह जमाना गया कि लोग कवियों कलाकारों को अमर बनाते थे, अब अमरता वाला मुहावरा खो गया है, इसलिए जो कवि खुद को अमर करने के लिए लिखता है, वह चुतिया है।

आज उसकी वह बात याद आ रही है - बेतरह । और याद आ रहे हैं रवीन्द्र, निराला और साथ में उस दुकानदार की बात - रवीना टंडन...।

एक गुमनाम लेखक की डायरी-4

20.08.2012 - बृहस्पतिवार

अजब दिन थे वे। अजब देश। 

खेत-बधार और गली-गांव से अधिक की पहुंच नहीं थी हमारी। कभी-कभी छुपकर दोस्तों के साथ नदी चले जाते थे। वह भी क्यों, इसलिए कि जोशोप को बहुत सारे गीत याद थे। वह घास गढ़ता था और अपने दोस्तों के साथ भैंस चराता था। हीरालाल भी बहुत अच्छे गीत गाता था। उनके साथ हम बच्चों की टोलियां गाते- बजाते  नदी की ओर भैंस धोने के लिए जाते। मैं नदी के किनारे खड़ा रहता। सारे बच्चे अपने अपने कपड़े उतार कर नदी में उतर जाते। एक दिन मैं नदी में उतरा और मेरे सारे कपड़े गीले हो गए। फिर भिगे हुए कपड़े पहने ही मैं कई घंटे बाहर ही घूमता रहा ताकि कपड़े सूख जाएं तो घर जाऊं। गीले कपड़े के कारण नदी जाने की बात घर वालों को पता चल जाती और मेरा आपने दोस्तों के साथ की चल रही करामातों पर पाबंदी लग जाती। कपड़े सूख गए लेकिन सिर पर पानी ने अपने निशान छोड़ रक्खे थे। मां को पता चला तो उसने बहुत डांट लगाई। लेकिन नदी जाना नहीं रूका। 

एक बार मैं नदी में डूबने लगा। अंतिम बार लगा कि अब मैं मर जाऊंगा, अब फिर मेरी वापसी नहीं होगी। लेकिन मेरी एक ताकत मेरी जिद भी है। जिद में आकर मैंने अंतिम प्रयास किया और तैरता हुआ किसी तरह किनारे तक पहुंचा। उसदिन लगा कि मैं तैर सकता हूं, लेकिन गहराई में जाने में अज भी मुझे डर लगता है।



वह नदी अब सूख-सी गई है। वहां लोग अब नहाने नहीं जाते। औरतें अपने कपड़े फिंचने नहीं जाती। बालकिशुन मल्लाह अब नाव से नदी पार कराने के एवज में अनाज मांगने नहीं आते। अब नदी उदास-उदास दिखती है। हमारे जवान होने तक वह अब बूढ़ी हो चुकी है। नदी मर रही है और हम सिर्फ उसे देख भर रहे हैं। वह धर्मावती नदी जब नहीं रहेगी तो मैं अपने बच्चों से कहूंगा कि यहां एक नदी बहा करती थी और हमारे उस कहने की पीड़ा को शायद उस समय मेरे बच्चे नहीं समझेंगे।

गंगा जी दूर थीं जिसे हमारे बाबा भागड़ कहते थे। गंगा नदी हमें छोड़कर चली गई थीं और अब भागड़ रह गया था। गंगा जी के भाग जाने के कारण शायद उसका नाम भागड़ पड़ा था। हमारे बार वहीं उतरे थे। नदी को मापने के लिए बाध की रस्सी पकड़ हम गंगा के उस पार पहली बार गए थे । हम और मेरे बड़े भाई। मल्लाह से कहकर हमने गंगा के बीच में झिझिली खेली थी। बहनों ने गीत गाया था - मल्हवा रे तनिए सा झिझिली खेलाउ -। .. पूरी नौका गांव की औरतों से भरी हुई थी और पानी के बीच में गीत गूंज रहा था। वह गीत आज भी कभी-कभी मेरे कानों में गूंजता है. आज जब उस गंगा के किनारे से गुजरता हूं तो अनायास ही मेरे हाथ प्रणाम की मुद्रा में उठ आते हैं। मैं खुद को अब तक रोक नहीं पाया। रोकने की कोशिश भी नहीं की।

वह गंगा नहीं थी। गंगा का पानी सिर्फ बाढ़ के समय सावन-भादो में आता था। लेकिन पूरे साल हमारे लिए वही गंगा नदी थी। हमारी सारी रश्में वहीं होती थीं। मुर्दे फूंके जाते थे। तीज-जिऊतिया में औरते उसी के किनारे गीत गाते हुए-नहाते हुए अपने व्रत-उपवास पूरा करती थीं। उसी के किनारे कथा का आयोजन होता था। कई बार चईता-बिरहा और दुगोला का भी आयोजन होता।

वह गंगा नहीं थी लेकिन लोग उसे गंगा की तरह ही पूजते-आंछते थे। वह भागड़ भी अब सूखने के कगार पर है। और हम उसे सूखते मिटते हुए देख रहे हैं। मैं हर बार मन ही मन उस गंगिया माई को प्रणाम करता हूं। उसने हमें पानी दिया। हमें तैरना सिखाया। हमसे बेघर होकर भी कैसे रहा जाता है, वह सिखाया। यहां हुगली को रोज पार करता हूं, लेकिन वह श्रद्धा वह हूक मेरे मन में नहीं उठती जो उस सूख रही गंगा के लिए उठती है। 

कविता कहीं नहीं थी।  बस यही सब था जो जमा पूंजी था। आज भी कथा-कहानी के नाम पर वही सब है जिसे मैं हर रोज घर में या घर से निकलने के बाद जतन से बटोरता चलता हूं...।

Tuesday, August 21, 2012

एक गुमनाम लेखक की डायरी - 3

पहली-दूसरी -तीसरी कविताओं से होते हुए असंख्य कविताओं तक का सफर जारी हुआ। लेकिन यह बहुत बाद की बात है। इसके पेश्तर  रामनरेश त्रिपाठी की प्रार्थना, मैथेलीशऱण गुप्त की गौरव भरी कविताएं - इससे ज्यादा क्या था मेरे पास। एक सत्यनारायण लाल थे जिनका नाम बार-बार पढ़ने में आता था। 

हमने नहीं जाना कभी तब कि कार्टून की किताबें होती हैं। चंदा मामा जैसी किताबें होती हैं, जिन्हें बच्चे पढ़ते हैं। हमारे पास जो किताबें थीं वे कक्षा के लिए जरूरी थीं। आलावा इसके हनुमान चालिसा, सत्यनारायण व्रत कथा जैसी किताबें। एक किताब और थी जिसका जिक्र मैं बार-बार करता हूं - वह थी रामचरित मानस। 

समय-समय पर गीत गवनई और उसमें गाए जाने वाले रामायण और महाभारत के प्रसंग थे। विदेसिया नाच था और उसमें नाचने वाले लौंडों के द्वारा विरह के गाए हुए गीत थे, जोकर था जो अपनी अदाओं से हंसाता था। सत्ती ब्हुला का नाटक था, रानी सारंगा और सदावृक्ष जैसी किताबें थीं जिसे लय में हम बहनों के साथ गाया करते थे। गांव में हर समय गूंजने वाले मेहररूई गीत थे - गीत में पीड़ा थी, हंसी थी और वह सबकुछ था  और तब हमारा मन इन्ही सबको जीवन समझता था।

कविता कहां थी।  हरिजन बस्तियों में गाये जाने वाली सिनरैनी थी जिसमें  रविदास के पद गाए जाते थे। तब रविदास का पता नहीं था कि कौन थे। कबीर की उक्तियां थीं जिन्हें हम साधु-संत समझते थे। गोरखपंथी साधुओं द्वारा सारंगी पर गाए हुए गीत थे जिन्हें सुनते हुए मैं पूरे दिन गांव-गांव भटकता रहता था।  

आज मैं सोचता हूं तो लगता है कि इन्ही सब चीजों के बीच चुपके से कविता मेरे अंदर कहीं प्रवेश कर रही थी। और मैं उससे अनजान आपने में मगन एक ऐसी यात्रा कर रहा था जिसकी पगडंडियां यहां तक आती थीं जहां मैं खड़ा हूं। 

आज मन में यह प्रश्न लिए कि कहां खड़ा हूं मैं !!

Monday, August 20, 2012

एक गुमनाम लेखक की डायरी - 2

21.08.2012, मंगलवार

पहली कविता जो याद रह गई मन में उसे कैसे याद करूं - बहुत दूर समय की गहराइयों में जाकर एक बच्चे से पूछता हूं तो वह कहता है - घूघुआ मामा उपजे ले धान्हा। मैं उससे उसका अर्थ पूछता हूं तो वह लजाकर भाग जाता है। घर के कोने से मुझे देखता हुआ जोर-जोर से चिल्लाता हुआ गाता है - कितना पानी घोघो रानी। 

मैं उन गीतों की अर्थ गहराईयों में खो जाता हूं। मुझे कुछ भी हासिल नहीं होता। मुझे  आजी की आवाजें घेर लेती हैं। वह गा रही हैं मुझे अपने पैरों पर झूला झुलाते हुए - घुघुआ मामा उपजे ले धान्हा।

कविता से परिचय के पहले साधन ये ऐसे गीत बनते हैं जिनके अर्थ मुझे अब तक नहीं मालूम। जिन गीतों के अर्थ मालूम हैं वो अब समृतियों से गायब होते जा रहे हैं। वे तमाम गीत जो जांत चलाते हुए आजी और उनके साथ की औरते गातीं थीं। सोहनी करते हुए निठाली बहु और उनकी सहेलियां गाती थीं। नीम के झूले पर झूलती हुई गांव की लड़कियां गाती थीं। मचान पर जनेरा की बालियों की रखवाली करते हुए भरत भाई गाते थे। या बाबा को रात में जब नींद नहीं आती थी तो कभी कभी वे गुनगुनाते थे। मेरी नींद खुलती तो नींद में खलल डालती हुई अनेकों आवाजें मेरे कान में गूंजती थीं। उन तमाम गीतों को याद करते हुए मैं उनके ऋण को महसूस कर रहा हूं जो मेरी पीठ पर आज भी लदा है। 

कविता में पहली बार प्रवेश करता हूं तो मेरे सामने तितली-सूरज या  ईश्वर और देश से ज्यादा कुछ दिखाई नहीं पड़ता। कभी दूर देस से आती हुई कोई तितली अपने चंचल पंख हिलती है या स्कूल में होने वाली प्रर्थना अगम अखिलेश हे स्वामी  गूंजती-सरसराती निकल जाती है। 

मैं जब भी कोई कविता लिखने बैठता हूं मेरे सामने कोई शब्द नहीं होता। किसी वाक्य संरचना की कोई भूमिका नहीं होती। बहुत दूर समय के पार से आती हुई वे आवाजें होती हैं जो वर्तमान से टकरा कर एक नई धुन एक नई तरह की पीड़ा की रचना करती हैं।

एक शब्द लिखने के पहले मुझे मेरे बाबा के पसीने से भीगे हुए मटमैले कपड़े याद आते हैं। पिता की  पसीने के दाग से धवल पड़ गई सिपाही की वर्दी याद आती है। मां के पेट का दर्द याद आता है, जो अब तक जारी है। मेरी वे बहनें याद आती हैं जो कभी स्कूल नहीं गईं। मेरे बड़े भाई याद आते हैं जिनसे बेहद प्यार करते हुए भी उन्हें बचाया नहीं जा सका। रामचरित मानस की वह फटी-पुरानी पोथी याद आती है जो बिना दरवाजे के आलमारी में रखी जाती थी और कभी-कभी गाय के गोबर के छींटे उसपर पड़ जाते थे।

मैंने उस पोथी से बहुत सारे शब्द सीखे। और कई-कई बार उसे टिकुराई से सीता रहा। उसे बचाता रहा। और अंत में वहीं उसी आलमारी में छोड़कर इस महानगर में चला आया। मुझे फिर कभी वह पोथी नहीं मिलनी थी। मुझे एक कमरे में बंद हो जाना था और रोना था जी भर-भर अपने गांव की पगडंडियों खेतों और बाग-बगीचों के लिए। मेरे पास दीवारें थीं जिनके चारों ओर अंधेरा था। और बीमारी से तड़पती हुई मां थी । एक पिता थे जिनके माथे पर चिंता की रेखाएं गहरी होती जाती थीं। मेरे भाई बहन थे जिनके लिए मुझे भात और रोटी बनाना सीखना था।

नादानियों का समय कहीं बहुत पीछे छूट गया था। जिसको पाने के लिए सालों साल हमने कैलेंडर के पन्ने रंगे थे। और  शब्दों  के साथ हमारी दोस्ती की शुरूआत हो रही थी। हलांकि शब्द कम थे और हमारी भूख उससे कहीं बहुत ज्यादा। शब्दों के बदले हमें रोटियां खानी पड़तीं। रोटियों के बदले हमें कुछ भी हासिल नहीं था।

हम बदल रहे थे। लेकिन हमें उस बदलाव की जानकारी नहीं थी। सचमुच हम उस समय अनपढ़ थे और गंवार। हमें अंग्रेजी की एबीसीडी नहीं आती थी। और उन साथियों से हम रश्क करते थे जो अंग्रजी में बिना रूके कविताएं पढ़ते जाते थे।

कुल मिलाकार हमारे पास वे गीत थे जो हम अपने गांव से लेकर आए थे। समृतियां थीं जिनके लिए हम रात-दिन तड़पते रहते थे।

Sunday, August 19, 2012

एक गुमनाम लेखक की डायरी-1


 20.08.2012, सोमवार, लिलुया

पंन्द्रह साल पहले की डायरी खो गई है। क्या होगा उसमें की जिज्ञासा लिए पूरे घर में चहलकदमी करता हूं। कोने-कतरे में ढूंढ़ता हूं अपने वे शब्द जो तब लिखे गए जब शब्दों की महिमा तक से मन अनजान था। कुछ भी नहीं मिलता। कागज के टुकड़ों पर लिखी कुछ कविताएं मिलती हैं, जिन्हें आज ठीक तरह कविता भी नहीं कह सकता। निराशा की एक झीनी चादर घर के फर्श पर ही बिछ जाती है। मैं थोड़ा आराम करना चाहता हूं ताकि नई ऊर्जा से अपने छूट गए शब्दों की तलाश कर सकूं।

वे ढेरों कविताएं याद आती हैं जिन्हें लिखते हुए ऐसा नहीं सोचा कि ये कविताएं हैं कि कभी लोग इन्हें पढ़ेंगे। घर की संवादहीनता। दोस्त-साथी के  न होने की सूरत में मैं अपनी बात वहीं कह सकता था। वहीं कहा मैंने। बिना यह सोचे कि कहने के बाद न सांस लेने वाले कागज कुछ नहीं बोलेंगे, सह लेंगे मेरा सबकुछ कहा। अच्छा- बूरा, हंसी-खुशी, उदासी-रूलाई सब सह लेंगे एकदम चुप।

वे कागज के टुकड़े जिन्होंने इतना साथ दिया, उन्हें भूलूं भी तो कैसे। वे छूट गए गांव की पगडंडियों की तरह याद आते हैं। उन रस्सियों के झूले की तरह याद आते हैं जो नीम के पेड़ पर लटका छोड़ आए थे हम यहां इतनी दूर। कोलकाता..। यहां आकर एक सरकारी क्वार्टर में बंद हो गई थीं हमारी सांसें। कहीं कुछ भी नहीं। अखबार नहीं। टी.वी. नहीं। सिर्फ हिन्दी की पाठ्य पुस्तकें जो पढ़-पढ़कर ऊब गए थे।

याद आती है वह नदी जिसकी देह पर लिखते थे उस समय की सबसे खूबसूरत लड़की का नाम। उस पेड़ की याद आती है जिसमें खुदे थे ककहरा... और कई ऐसी रेखाएं खुदी थी जिनके अर्थ सिर्फ हम ही जानते थे।

ऐसी कविताएं जो हमारी आत्मा पर लिखे थे समय ने। हमारी देह पर स्कूल के मास्टरों ने। हमारे मन पर घर के बुजुर्गों ने। उन सबको लेकर आए थे यहां इस महानगर में शब्दों को खोजने। पिता की नजरों में उन शब्दों को खोजने जिनसे आदमी बनता है कोई एक। पर अपनी नजरों में हम उन शब्दों को खोज रहे थे जिनसे आदमी को सचमुच के आदमी की शक्ल में ढलने में मदद मिलती है। 

हम कोई विशिष्ट नहीं थे। हमें भी रोना आता था। कभी-कभी हंसते थे हम भी जोर-जोर। कोई एक पुराना लोक गीत जोर-जोर से गाकर सोचते थे कि हमारे सामने हजारों लोग खड़े हैं और हमारे गाने पर हो रहे हैं मोहित।

आज पता नहीं क्यों वह छुटा हुआ समय याद आ रहा है।  आइए रहते हैं साथ कुछ दिन। देखते परखते हैं। अपने गुमनामी पर हंसते हैं कुछ लम्हा...। फिक्र को उड़ाते हैं गुब्बारे की तरह। आइए कि फिर से जिंदा होते हैं कुछ लम्हा अपने होने के साथ....।

Tuesday, August 14, 2012

बकलम खुद


मेरा जन्म ऐसे परिवेश में हुआ जहां लिखने-पढ़ने की परम्परा दूर-दूर तक नहीं थी। कहने को हम ब्राह्मण थे, लेकिन मेरे बाबा को    भी लिखने नहीं आता था, शायद यही वजह है कि पुरोहिताई का काम मेरे परिवार से कभी नहीं जुड़ा। लेकिन अनपढ़ होने के बावजूद बाबा को तुलसी दास की चौपाइयां याद थी। गांव में जब भी गीत-गवनई होती  और उसमें अक्सर रामचरित मानस के छन्द ही गाए जाते  मैंने हमेशा देखा था कि बिना पुस्तक देखे बाबा छन्द गाते चले जाते थे, मेरा चुप-चाप उनके पीछे बैठना और गाते और झाल बजाते हुए उनकी हिलती हुई पीठ और उसपर रखा गमछा जरूर याद आते हैं।
मुझे स्वीकार करना चाहिए कि कविता से मेरा पहला परिचय यहीं से होता है  बाद में जब मुझे अक्षरों का ज्ञान हुआ तो बाल भारती के अलावा जो पुस्तक सबसे ज्यादा आकर्षित करती थी वह रामचरित मानस ही थी  मैं सबकी नजरें बचाकर ( यह संकोचबस ही था शायद) उस भारी-भरकम पुस्तक को लेकर किसी घर में बैठ जाता था और लय और पूरी तन्मयता के साथ गाता चला जाता था  श्री राम चन्द्र कृपालु भजुमन....

बचपन गांव में बीता। लेकिन एक दिन बाबा को लगा कि यह लड़का नान्हों की संगत में पड़कर बिगड़ रहा है। उस समय मेरे मित्रों में ज्यादातर लड़के ऐसे थे जिन्हें उस समय की गंवई भाषा में चमार-दुसाध और मियां कहा जाता था। उन दोस्तों के साथ अक्सर मैं भैंस चराने निकल जाता, घांस काटता, नदी नहाता और उनके घर खाना भा खा लेता था। बाबा पढ़े-लिखे नहीं थे लेकिन उनके अन्दर ब्राह्मणत्व कूट-कूट कर भरा हुआ था। सो उन्होंने मेरे पिता को आदेश दिया कि इसे यहां से हटाओ नहीं तो यह लड़का हाथ से निकला जाता है।

इस तरह गांव छुटा  या छुड़ा दिया गया। लेकिन गांव, खेत, बगीचे और दोस्तों के लिए मैं कितना रोया  कितना रोया, आज उस छोटे बच्चे के बारे में सोचता हूं और उसका रोना याद आता है तो मेरी आंखें आज भी नम हो जाया करती हैं। अपने गांव से दूर मुझे कोलकाता भेज दिया गया था आदमी बनने के लिए। पंडी जी का पहाड़ा और शहर कविता उस याद की एक हल्की तस्वीर पेश करती है।

कविताओं की दुनिया ने हमेशा से ही आकर्षित किया। स्कूल में पढ़ते हुए सबसे पहले हिन्दी की किताब ही खत्म होती थी। खत्म होने के बाद भी बार-बार पढ़ी जाती थी- जब मन भर जाता तो बड़े भाई की हिन्दी की किताब पर भी हाथ साफ किया जाता रहा। यह क्रम लगभग दसवीं कक्षा तक बदस्तुर जारी रहा। 10 वीं कक्षा तक सबसे अधिक प्रभावित करने वाले कवियों में निराला, दिनकर और गुप्त जी रहे। एच.एस. में आने के बाद पहली बार नागार्जुन और अज्ञेय जैसे कवियों से पाला पड़ा। वैसे अज्ञेय की एक कविता दसवीं में पढ़ चुके थे  मैने आहूति बनकर देखा। वह कविता तब की कंठस्थ हुई तो आज भी पूरी याद है।

मैं इतना संकोची स्वभाव का रहा हूं कि कभी-भी किसी शिक्षक से यह नहीं पूछा कि और क्या पढ़ना चाहिए। ले-देकर पिता थे जो दिनकर का नाम जानते थे और दिनकर की रश्मिरथि उन्हें पूरी याद थी। फल यह हुआ कि रश्मिरथि मुझे भी लगभग याद हो चली।

कॉलेज में पहली बार सर्वेश्वर दयाल सक्सेना से परिचय हुआ। उनकी कई कविताएं याद हो गईं। लेकिन सबसे ज्यादा निकट जो कवि लगा, वह थे केदारनाथ सिंह। उनकी जादुई भाषा और गांव से जुड़ी उनकी कविताएं बिल्कुल अपनी तरह की लगती थीं। पहली बार लिखने का साहस केदारनाथ सिंह को पढ़ते हुए ही हुआ। कविताएं लिखना तो बहुत समय से चल रहा था लेकिन कविताएं कैसी हैं, यह कौन बताए। अपनी लिखी हुई रचना किसे पढ़ाई जाय। यह समस्या बहुत दिन तक बनी रही। इसके बाद कई मित्र मिले जो लिखने को साध रहे थे। निशांत बाद में चलकर बड़े अच्छे मित्र बने। प्रफुल्ल कोलख्यान और नीलकमल से बातें होने लगीं तो लगा कि अभी बहुत कुछ करना बाकी है।
इसके बाद लगभग हर समकालीन कवियों को पढ़ा। एक-एक संग्रह खरीद-खरीद कर के। बांग्ला की कुछ कविताएं भी भाई निशांत के सौजन्य से पढ़ने को मिलीं।

पहली बार 2003 में वागर्थ में तीन कविताएं छपी। इसके बाद छपने का सिलसिला जारी रहा। इस बीच मानसिक परेशानियां भी खूब रहीं। मनीषा मेरे साथ ही पढ़ती थी और हम एक दूसरे को पसंद करने लगे थे। घर वालों को यह बात नागवार गुजरी थी और काफी जद्दोजहद और संघर्ष के पश्चात ही हमारी शादी हो सकी। मेरी कविताओं में उस संघर्ष की झलक मिलती है।

2006- से 2009 तक लगभग तीन साल तक मैने लिखना पढ़ना बंद कर दिया था। मुझे लगा कि ऐसे माहौल में कोई कैसे लिख सकता है। मेरे व्यक्तिगत जीवन में कुछ ऐसी घटनाएं घटित हुईं .. साथ ही साहित्यिक जीवन में भी कि मैंने कसम खा ली कि अब लिखना पढ़ना सब बंद। लेकिन बाद में पता चला कि लिखने-पढ़ने के बिना मैं रह ही नहीं सकता। कि लिखने के बिना मेरी मुक्ति नहीं है। और मैं फिर लौटकर आया। इस बीच कोलकाता में उदय प्रकाश के साथ काव्य-पाठ हुआ, उन्होंने कविताओं की दिल से तारीफ की और कहा कि आपको लिखते रहना चाहिए। मेरे लिखने की तरफ लौटाने में भाई निशांत की भूमिका को मैं कभी नहीं भूल सकता। इसी वर्ष लिखना शुरू किया और इंटरनेट को भी साधना शुरू किया। अब सोच लिया है कि कुछ भी लिखूं वह सार्थक हो। इस लिखने के क्रम में कुछ भी सार्थक लिख पाया तो समझूंगा कि एक श्राप से मुझे मुक्ति मिली और साहित्य और समाज को कुछ ( बहुत छोटा अंश) मैं दे सका।

कविताओं में लोक और खासकर गांवों की स्मृतियां ज्यादा हैं। गांव से बचपन में खत्म हुआ जुड़ाव गहरे कहीं बैठ गया था और बार-बार मेरी कविताओं में वह उजागर हो जाता था। बहुत सारी कविताएं गांव की पृष्ठभूमि पर लिखी गई हैं और कई कविताओं में गांवों के ठेठ शब्दों का इस्तेमाल भी मैने किया है।

यह भी सही है कि अपनी कुछ ही कविताएं मुझे अच्छी लगती हैं। अभी जो कविताएं लिखी जा रही हैं, उनमें अधिकांश कविताएं मुझे स्पर्श नहीं करती लेकिन कई एक कविताएं झकझोरती भी हैं। मुझे हमेशा लगता है कि अबी मैं कविताएं लिखना सीख रहा हूं। लगभग 15 साल से लागातार लिखता हुआ मैं कभी तो किसी कविता या किसी कहानी से संतुष्ट हो पाता!!. यह अवसर अब तक नहीं आया है... कविताओं के कुछ अंश अच्छे लगते हैं पूरी कविता कभी नहीं।
एक और बात मुझे कहनी ही चाहिए। कई बार लोग कहते हैं कि तुम इस समय के लायक नहीं हो, तुम बहुत सीधे हो। ऐसे समय में तुम कैसै टिक पाओगे। तुम्हे थोड़ा समय के हिसाब से चालाक बनना चाहिए। लेकिन मैं बन नहीं पाता। मुझे बार-बार लगता है कि जिस दिन मैं चालू बन जाऊंगा, या समय के अनुरूप खुद को चालाक बना लूंगा उसी दिन मेरा लेखक मर जाएगा। इसलिए मैं जैसा हूं वैसा ही बना रहना चाहता हूं... आज न सही लेकिन कभी तो ऐसी कविता संभव हो पाएगी, जिसे लिखना चाहता हूं...।