Tuesday, August 28, 2012

एक गुमनाम लेखक की डायरी-10

कभी-कभी सोचता हूं कि कविता क्या काम करती है। जैसे हर चीज का अपना एक वजूद और जगह नियत होता है, एक अर्थ और दायित्व होता है। उस तरह कविता का भी कोई दायित्व है?

सोचता हूं, तब अधिक, जब कोई कह दे कि यार क्या कविता को लिए पड़े रहते हो, बहुत सारे जरूरी काम हैं जीवन में करने को। मैं सोच में पड़ जाता हूं कि आज भी हिन्दी में कविता लिखने को जरूरी काम क्यों नहीं समझा गया। 

क्या सचमुच हमारे जीवन और मौजूद समय में कविता की प्रासंगिकता समाप्त हो गई है? और लोगों का कुछ नहीं जानता, लेकिन मेरे कविता लिखने के कारण मेरे गांव या घर में किसी ने मुझे सम्मान की नजर से नहीं देखा। 

मेरी कविता की पहली किताब जब प्रकाशित हुई तो सबसे पहले मैंने उसे पिता को दिखाया - उन्होंने किताब देखा और पूछा कि पैसे भी मिलेंगे? मैं चुप रह गया। कुछ देर बाद बहुत धीमें स्वर में मैंने कहा कि रॉयल्टी मिलेगी दस प्रतिशत की। मैंने यह नहीं कहा कि सौ प्रतियां मैंने खुद प्रकाशक से खरीदी हैं और उसके लिए दस हजार देने पड़े हैं। मां  अनपढ़ है, पहले चिट्ठी पढ़ लेती है लेकिन अब भूल गई है। उसने किताब के शीर्षक को पढ़ने की कोशिश की लेकिन पढ़ नहीं पाई। उसने पैसे की बात नहीं की । ढेर सारा आशिर्वाद दिया और कहा - खूब आगे बढ़ो, दुनिया में खूब नाम करो। घर का नाम दुनिया भर में बिखेरो। 


मैं मां के निर्दोष और सोझबक बातों को सुनकर अंदर तक पिघल जाता हूं। मां कविता नहीं समझती। वह अपने बेटे को आगे बढ़ते हुए देखना चाहती है।  मैं उदास हो गया हूं, उदास और अकेला। पिता ने अब तक मेरी कविताएं नहीं पढ़ीं शायद। मैंने कभी पूछा नहीं इस बारे में और उन्होंने बताया भी नहीं।

मेरा एक सहपाठी अमेरिका चला गया है। गांव में उसकी बहुत चर्चा हुई। मुझे कविता के लिए सूत्र सम्मान मिला, कहानी की किताब पर भारतीय ज्ञानपीठ का प्रतिष्ठित सम्मान मिला, यह बात मेरे घर वालों के अलावा गांव में कोई नहीं जानता। दूसरे गांव की बात तो सोचना ही बेमानी है। 

मुझसे ज्यादा लोग उस लड़के को जानते हैं जो भोजपुरी में लोक गीत गाता है।  मुझे इसका दुःख नहीं कि लोग मुझे नहीं जानते। दुख इस बात का है कि कोई एक कविता लिखता है, और उसके  लिखे को बाहर के कुछ लिखने पढ़ने वाले लोग तो जानते हैं लेकिन उनके अपने जमीन के लोग जिनके बारे में वह कविताएं लिखता है, वे नहीं जानते। यह बात मुझे बेहद परेशान करती है। 

अच्छा ठीक है कि कविता जीवन के अन्य जरूरी चीजों की तरह जरूरी नहीं लगती। लेकिन मैं यह सोचता हूं तो अंदर तक कांप जाता हूं कि क्या हम एक कविताहीन समय में रह रहे हैं। एक ऐसे समय में जब सिनेमा, टेलिविजन और तरह-तरह के गीत-गाने ज्यादा महत्वपूर्ण हैं, हो गए हैं, और कविता  इस समय एक हासिये की चीज है। हर बार इस सच्चाई का जब सामना होता है, मैं इसे स्वीकार नहीं कर पाता और गहरे सोच में डूब जाता हूं।

कविता-साहित्य के नाम पर हम लोकगीतों और तुलसी-कबीर- मीरा से आगे क्यों नहीं बढ़ पाए? मेरे गांव का वह दुलारचन जो चइता और सिनरैनी गाता है, क्या वह किसी दिन मेरी कविता को समझ पाएगा? मेरी वे बहनें मेरे भाई मेरे अपने लोग जिनके लिए इतनी दूर रहते हुए मेरे मन में एक हूक उठती है, वे किस दिन मेरी कविताओं को समझ पाएंगे।

पैंसठ साल की आजादी के बाद भी मेरे गांव के पचास प्रतिशत लोग अनपढ़ हैं और अब तक मेरे गांव में बिजली नहीं गई। वहां उस जगह कविता की रोशनी कब पहुंचेगी?

कविता का मतलब जो मैंने समझा है - वह विद्रोह है। जब आप कविता लिखने के लिए कलम उठाते हैं तो विद्रोह करते हैं, उस अन्याय के खिलाफ दो सदियों से जारी है। सच के हक में बोलने का नाम कविता है-साहित्य है, तमाम कलाएं हैं। जो उन्हें पढ़ता है वह गर्व के साथ और मनुष्य की तरह  जीना सीखता है। कविता का और काम क्या है?

मुझे पूरा यकीन है कि पिता अगर कविता को प्रेम करते तो उनसे मेरे मतभेद बहुत कम होते। 

सच्ची कविता रक्त में धीरे-धीरे भिनती है और हमारी दृष्टि को बदल कर रख देती है। समय और समाज कविता से जितना दूर होता जाएगा, वह निर्मम और मक्कार होता जाएगा। मनुष्य को मनुष्य बने रहने के लिए हर समय में कविता किसी भी चीज से ज्यादा जरूरी चीज है.. और इस बात को कहने में मुझे कोई झिझक या संकोच नहीं है...।

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