Monday, August 20, 2012

एक गुमनाम लेखक की डायरी - 2

21.08.2012, मंगलवार

पहली कविता जो याद रह गई मन में उसे कैसे याद करूं - बहुत दूर समय की गहराइयों में जाकर एक बच्चे से पूछता हूं तो वह कहता है - घूघुआ मामा उपजे ले धान्हा। मैं उससे उसका अर्थ पूछता हूं तो वह लजाकर भाग जाता है। घर के कोने से मुझे देखता हुआ जोर-जोर से चिल्लाता हुआ गाता है - कितना पानी घोघो रानी। 

मैं उन गीतों की अर्थ गहराईयों में खो जाता हूं। मुझे कुछ भी हासिल नहीं होता। मुझे  आजी की आवाजें घेर लेती हैं। वह गा रही हैं मुझे अपने पैरों पर झूला झुलाते हुए - घुघुआ मामा उपजे ले धान्हा।

कविता से परिचय के पहले साधन ये ऐसे गीत बनते हैं जिनके अर्थ मुझे अब तक नहीं मालूम। जिन गीतों के अर्थ मालूम हैं वो अब समृतियों से गायब होते जा रहे हैं। वे तमाम गीत जो जांत चलाते हुए आजी और उनके साथ की औरते गातीं थीं। सोहनी करते हुए निठाली बहु और उनकी सहेलियां गाती थीं। नीम के झूले पर झूलती हुई गांव की लड़कियां गाती थीं। मचान पर जनेरा की बालियों की रखवाली करते हुए भरत भाई गाते थे। या बाबा को रात में जब नींद नहीं आती थी तो कभी कभी वे गुनगुनाते थे। मेरी नींद खुलती तो नींद में खलल डालती हुई अनेकों आवाजें मेरे कान में गूंजती थीं। उन तमाम गीतों को याद करते हुए मैं उनके ऋण को महसूस कर रहा हूं जो मेरी पीठ पर आज भी लदा है। 

कविता में पहली बार प्रवेश करता हूं तो मेरे सामने तितली-सूरज या  ईश्वर और देश से ज्यादा कुछ दिखाई नहीं पड़ता। कभी दूर देस से आती हुई कोई तितली अपने चंचल पंख हिलती है या स्कूल में होने वाली प्रर्थना अगम अखिलेश हे स्वामी  गूंजती-सरसराती निकल जाती है। 

मैं जब भी कोई कविता लिखने बैठता हूं मेरे सामने कोई शब्द नहीं होता। किसी वाक्य संरचना की कोई भूमिका नहीं होती। बहुत दूर समय के पार से आती हुई वे आवाजें होती हैं जो वर्तमान से टकरा कर एक नई धुन एक नई तरह की पीड़ा की रचना करती हैं।

एक शब्द लिखने के पहले मुझे मेरे बाबा के पसीने से भीगे हुए मटमैले कपड़े याद आते हैं। पिता की  पसीने के दाग से धवल पड़ गई सिपाही की वर्दी याद आती है। मां के पेट का दर्द याद आता है, जो अब तक जारी है। मेरी वे बहनें याद आती हैं जो कभी स्कूल नहीं गईं। मेरे बड़े भाई याद आते हैं जिनसे बेहद प्यार करते हुए भी उन्हें बचाया नहीं जा सका। रामचरित मानस की वह फटी-पुरानी पोथी याद आती है जो बिना दरवाजे के आलमारी में रखी जाती थी और कभी-कभी गाय के गोबर के छींटे उसपर पड़ जाते थे।

मैंने उस पोथी से बहुत सारे शब्द सीखे। और कई-कई बार उसे टिकुराई से सीता रहा। उसे बचाता रहा। और अंत में वहीं उसी आलमारी में छोड़कर इस महानगर में चला आया। मुझे फिर कभी वह पोथी नहीं मिलनी थी। मुझे एक कमरे में बंद हो जाना था और रोना था जी भर-भर अपने गांव की पगडंडियों खेतों और बाग-बगीचों के लिए। मेरे पास दीवारें थीं जिनके चारों ओर अंधेरा था। और बीमारी से तड़पती हुई मां थी । एक पिता थे जिनके माथे पर चिंता की रेखाएं गहरी होती जाती थीं। मेरे भाई बहन थे जिनके लिए मुझे भात और रोटी बनाना सीखना था।

नादानियों का समय कहीं बहुत पीछे छूट गया था। जिसको पाने के लिए सालों साल हमने कैलेंडर के पन्ने रंगे थे। और  शब्दों  के साथ हमारी दोस्ती की शुरूआत हो रही थी। हलांकि शब्द कम थे और हमारी भूख उससे कहीं बहुत ज्यादा। शब्दों के बदले हमें रोटियां खानी पड़तीं। रोटियों के बदले हमें कुछ भी हासिल नहीं था।

हम बदल रहे थे। लेकिन हमें उस बदलाव की जानकारी नहीं थी। सचमुच हम उस समय अनपढ़ थे और गंवार। हमें अंग्रेजी की एबीसीडी नहीं आती थी। और उन साथियों से हम रश्क करते थे जो अंग्रजी में बिना रूके कविताएं पढ़ते जाते थे।

कुल मिलाकार हमारे पास वे गीत थे जो हम अपने गांव से लेकर आए थे। समृतियां थीं जिनके लिए हम रात-दिन तड़पते रहते थे।

No comments: