Sunday, August 26, 2012

एक गुमनाम लेखक की डायरी - 8

रात बहुत बूरे सपने आए। 
पहली बार तो नहीं ही आए। अक्सर आते रहते हैं। अब अच्छे सपने नहीं आते। बुरे ही आते हैं। 

बहुत जमाने पहले के एक समय में सपने हमारे लिए सबसे अच्छे मनोरंजन के साधन थे। सुबह जब सब लोग द्वार पर इकट्ठे होते तो अपने-अपने सपने सुनाते। सबके सपने सबलोग मनोयोग से सुनते थे। कई लोग जिन्हें सपने नहीं आते थे उनका सपना सबसे अच्छा होता था। वे झूठ-मूठ सपने गढ़ लेते थे। सच्चे सपने झूठे सपने के आगे फीके पड़ जाते। हमारा बच्चा मन झूठे सपनों पर विश्वास कर लेता। सपने झूठे होते हैं, ये बाद में पता चला। रात में देखे गए और जागती ऑंखों से देखे गए सपने में तफात होता है यह हमने बाद में जाना। जानना भी कई तरह से खतरनाक होता है, इसे भी जाना जब एक लड़की ने समझाया उस कविता का अर्थ जिसे सर्वेश्वर दयाल सक्सेना ने लिखा था - कुछ भी ठीक से जान लेना अपने आप से दुश्मनी ठान लेना है।

हमने पुराने जमाने के सपनों को एक-एक कर मिटते-ढहते देखा। हमारे सपने में परियां नहीं थी। महल नहीं थे। राजा-महाराजा के सपने नहीं थे। हमने ढेर सारी पसंद की मिठाइयां  खाने के सपने देखे। सिपाही की नौकरी और कुछ पैसे के बाद मां पिता को तीरथ-वरत कराने के सपने देखे। हमने यह भी सपने में देखा कि हमने जो आम का अमोला रोपा था, वह वृक्ष बन गया है, बड़ा सा और उसमें ढेर सारी मंजरियां उग आई हैं। अमरूद का वह पेड़ जो कभी बड़ा नहीं हो सका- वह बड़ा हो चुका है और ओझा बाबा के यहां नाली से निकालकर और धोकर अमरूद खाने से हम बच गए हैं।  कि हमारे गांव तक आने वाली सड़क जो बरसात के दिनों में कीचड़ की वजह से बंद हो जाती थी, वह अब पक्की की बन गई है और एक हरे रंग की सायकिल पिता ने खरीद कर दिया है और हम सब उस सायकिल को बारी-बारी चला रहे हैं। सबसे तेज मैं सायकिल चलाता हूं के सपने बार-बार रात में आते थे।

हमने कविताओं के सपने नहीं देखे। देवताओं के सपने नहीं देखे। पता नहीं और कितनी जरूरी चीजों के सपने नहीं देखे। उन्हीं सपनों के साथ एक दिन हमें कोलकाता लाया गया- यह तर्क देकर कि हम वहां गांव में नान्हों की संगत में बिगड़ रहे हैं। यहां आकर हम एक कमरे में बंद हो गए।

तब हमारे सपने में रेलगाड़ी आती थी जो हमारे गांव की ओर जाती थी। तब हमारे सपने में सपने सुनाने वाले गिरिजा, ददन, सुरेश, हीरालाल और सुरजा सब आते। तब हम सपने में अपने गांव में होते।

आज का सपना बहुत बुरा था। 
लेकिन क्या ही अचरज है कि  मैं सपने में अपने गांव में था। मेरे सपने में कुछ लोग थे जो शहरी लगते थे, उनके हाथों में अत्याधुनिक ढंग के हथियार थे, जिनके नाम मैं नहीं जानता। वे मेर पीछे पड़े हैं। वे मुझे मार डालना चाहते हैं। मेरे पिता मुझे बचाने के लिए मुझे कोनसिया घर में बंद कर चुके हैं। मैं अपने पुराने घर के खपड़े से होते हुए गांव की गली में कहीं खो जाता हूं। गांव की सारी गलियों के बारे में मुझे पता है। मैं भिखारी हरिजन के घर में हूं। उनकी  अधेड़ पत्नी मुझे अपने हाथों से गुड़ की चाय पिला रही है।

भागते समय मैं कुछ भी लेकर नहीं भागता। मेरे हाथ में किताबें हैं। कुछ देर बाद देखता हूं कि मैं नदी के किनारे हूं और उस नदी का नाम हुगली नदी है। मुझे एक आदमी मिलता है जो बोट चला रहा है, मुझे उस पार जाना है, वहां उस पार मेरा एक घर है। मैं देखता हूं कि वह बोट खेने वाला आदमी अचनाक  पुलिस में बदल जाता है। वह मेरी किताबें छिनना चाहता है। मैंने जो कविताएं लिखी हैं उसे छिनकर गंगा में बहा देना चाहता है। 

मैं भागता हूं, बेतहासा और और नदी में उतर जाता हूं। नदी में डूब्बी मारता हूं। और देखता हूं कि अपने गांव के भागर में हूं। वहां मेरे बाबा खड़े हैं। ुनके हाथ में रामचरितमानस है। उनके वस्त्र साधुओं की तरह है। उन्हें देककर उनके जिंदा होने पर मुझे अचरज होता है। मैं देखता हूं कि मेरी किताबें भीग गई हैं। लिखे हुए अक्षर की सियाही पन्नों में फैल गई है...। मैं बाबा को प्रणाम भी नहीं करता और धूप-धूप चिल्लाते हुए आगे बढ़ जाता हूं...।

सुबह से यह सपना मुझे परेशान किए हुए है। मां से कहा- मैंने बुरा सपना देखा आज। मुझे मत कह मझला, पानी में जाकर कह। बुरे सपने पानी में कहने से उनका दोष नष्ट हो जाता है। 

मैं ऑफिस के रास्ते हुगली नदी को देखता हुआ गुजर जाता हूं। हुगली नदी को प्रणाम करता हूं, अपना बुरा सपना नहीं कहता। सोचता रह जाता हूं और पहली-दूसरी गाडी छोड़कर तीसरी गाड़ी में सवार हूं..।

घड़ी देखता हूं और सोचता हूं...- आज फिर ऑफिस देर से पहुचूंगा।

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