Thursday, September 6, 2012

एक गुमनाम लेखक की डायरी - 17

 04.09.2012, मंगलवार
संबंधों को बचाने के लिए जितनी ऊर्जा हमारी जाया होती है - उतनी ऊर्जा में हम रचना के कितने पड़ाव पार कर सकते हैं -जो हम नहीं कर पाते। संबंध हम अपने लिए बनाते हैं- उनके बनते हुए के समय में हम खुद को समृद्ध करने की खुशफहमी में होते हैं लेकिन वे संबंध कई बार हमें कंगाल कर के चले जाते हैं। कंगाल और खाली।  हमारे पास उदासी और पश्चाताप के कुछ नहीं बचता। 

काश कि हमारे पास इतनी शक्ति होती कि उस उदासी और पश्चाताप का अपनी रचनात्मक समृद्धि के लिए इस्तेमाल कर पाते। 

लेकिन यह काम कितने कम लोग कर पाते हैं। 

यह हमारे अंदर बैठे एक मासूम शिशु को सबसे पहले मारती है- अचानक हम बहुत बड़े हो जाते हैं - इतने बड़े कि रचना का कैनवास उसमें समा नहीं पाता।

रचना के सामने यह क्या एक बहुत बड़ी चुनौती नहीं है? हम रचना से इतर रहकर उसका कितना नुकसान करते हैं - यह समझने वाला कोई नहीं।

रचनाकार अंततः अकेला होता है। उसके साथ कोई नहीं होता। 

एक समय दुख, उदासी और पश्चाताप भी उसका साथ छोड़ जाते हैं....।

No comments: