Monday, September 3, 2012

एक गुमनाम लेखक की डायरी-15

प्रफुल्ल भाई ने पन्नालाल की याद दिला दी। पन्नालाल को मैं भूल गया था कुछ दिनों से। उनकी किताब मौसम खराब है - कहीं दब गई थी किताबों के ढेर में। जैसे किताबों के ढेर में साधारण से कवर पेज और सादारण मुद्रण के साथ छपी उनकी किताब दब गई थी - उसी तरह पन्नालाल भी स्मृतियों के जंगल में कहीं बहुत नीचे दब गए थे। पन्नालाल कुछ खास परिचय नहीं था- बस एक दो संक्षिप्त-सी मुलाकातें।



पहली बार उनको जब देखा तब वे मेरे लिए निर्णायक मंडली के सदस्यों से लड़ रहे थे। 

हमने निलांबर के बैनर तले एक नाटक खेला था। उदय प्रकाश की कहानी और अंत में प्रार्थना पर मित्र ऋतेस और हम सबने मिलकर एक आधे घंटे का स्क्रिप्ट तैयार किया था। 

यह नाटक लगभग दस साल पहले हावड़ा के शरतम सदन में हिन्दी मेला द्वारा आयोजित एक प्रतियोगिता में खेला गया था। यह पहली बार ही था कि मैं मंच पर था और वह भी मुख्य भूमिका में। मुझे स्वाकार करना चाहिए कि तब मैं मंच पर जाने का आभ्यस्त नहीं था। लेकिन अबिनय से शुरू से रहे प्रेम ने मुझे बचाया। और मैंने बहुत अच्छा अबनय किया। हलांकि नाटक को बेस्ट प्रोडक्शन का अवार्ड मिला, लेकिन मुझे सबसे अच्छे अबिनेता का पुरस्कार नहीं मिला, जब कि हम सभी इसकी आशा कर रहे थे। पन्नालाल ने आकर मुझे बधाई दी और लागातार निर्णायकों से इस बात पर झगड़ा करते रहे कि इस लड़के को सबसे अच्छे अभिनेता का पुरस्कार आपलोगों ने क्यों नहीं दिया। 

मैं उन्हें जानता तक न था। बाद में किसी ने मुझे बताया कि इनका नाम पन्ना लाल है। देखने में इतने साधारण कि कोई भी उन्हें मजदूर समझ सकता था। उस समय मैंने भी यही समझा कि कोई होगा। अंत में वे मेरे पास आए और कहा - मंच पर इतना स्वभाविक अबिनय मैंने आजतक नहीं देखा। मैंने बहुत नाटक देखा है लेकिन इतना आकर्षित किसी के अभिनय नहीं देखा। मैं क्या कहता, बस सुन रहा था और सुनकर खुश हो रहा था। तब नहीं सोचा लेकिन आज इतने दिन बाद सोचता हूं कि ऐसे कितने लोग हैं इस दुनिया में जो दूसरों के लिए इस तरह मुखर होते हैं। वहां और भी लोग थे। लगभग कोलकाता के सभी बुद्धिजीवी, कलाकार लेकिन पन्ना लाल ही क्यों बोल रहे थे। उनसे मेरा क्या संबंध था?

पन्ना लाल कोलकाता के किसी जूट मिल में काम करते होंगे। या किसी प्राइमरी स्कूल के शिक्षक होंगे। मैंने कभी नहीं पूछा कि वे क्या करते हैं। उनका घर कोलकाता में कहां है, उनके घर में कितने लोग हैं, और जो लोग हैं वे ठीक तरह रह-सह रहे हैं या नहीं।

उनको गोष्ठियों में गीत गाते सुना था। एक दिन वे मेरे पास आए और अपनी किताब देकर कहा - इसे पढ़ना। इसमें मेरे गीत और कविताएं संकलित हैं। मैंने देखा कि उस किताब में भोजपुरी के भी गीत संकलित थे। जब वे बिमार पड़े तो मुझे नहीं पता था। मुझे यह भी पता नहीं था कि बिमारी में उनके पास दवाइयों के पैसे हैं या नहीं। और एक दिन अचानक महेश दा का एसएमएस आया कि पन्ना लाल नहीं रहे।

अचानक मैं अंदर तक बेचैन हो गया। लेकिन मुझे दफ्तर जाने की देर हो रही थी। मैं निकल गया और पूरा दिन पन्नालाल का निश्छल चेहरा याद आता रहा। वे आवाजें याद आती रहीं, जो कभी जनता के गीत गाती थीं, वे आंखें याद आती रहीं जिनमें बदलाव के सपने थे।

आज पन्नालाल को याद करते हुए मैं सोचता हूं कि मैं भी पन्नालाल हूं।  इस देश में पता नहीं कितने पन्नालाल हैं, जिनकी आंखें बदलाव के सपने के साथ असमय बंद हो गई हैं।



क्या पन्नालाल जैसे लोगों को यह देश या इस देश का इतिहास कभी याद रखेगा? 

इस प्रश्न पर आकर मैं मौन हो जाता हूं, और कुछ दिनों के लिए मन उदासी के एक भंवर में चला जाता है..-- निष्क्रिय और लापरवाह.. जैसे उसके होने का कोई अर्थ नहीं...।



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