Wednesday, October 10, 2012

एक गुमनाम लेखक की डायरी -30


आज बहुत दिनों बाद बीड़ी पी। 
शेखर दा ने अपने दोस्त से मांगा। उन्होने मुझसे भी पूछा तो मैंने एक बीड़ी ले लिया। बीड़ी पीते हुए मुझे बहुत कुछ याद आया। पहली बात तो यही कि पता नहीं कब पिछली बार बीड़ी पी थी। 
दूसरे मुक्तिबोध की वह छवि जिसमें वे बीड़ी पीते हुए दिखायी पड़ते हैं। मैंने बाद में आकर अंतर्जाल में उनकी वही छवि बार-बार देखी।  और इस बात पर अफसोस भी किया कि उस समय जब मैं बीड़ी पी रहा था, मेरे पास कैमरा होता तो मैं जरूर बीड़ी पीते हुए एक तस्वीर खिंचवाता। 

खैर यह तो हो नहीं सका। लेकिन मैं कॉलेज के उन दिनों में चला गया जब जेब में सिगरेट के लिए पैसे नहीं होते थे, तब हम  रामविनोद से बीड़ी लेकर पीते थे। उस समय सिगरेट की जगह बीड़ी पीना हमारे लिए कितना सुखदायी होता था, हम ही जानते थे। वे ग्रजुएशन के दिन थे। प्रेसिडेंसी कॉलेज का बड़ा कैंपस था, अंग्रजी बोलते लड़के-लड़कियां थीं और उन्हीं लोगों के बीच हिन्दी माध्यम से पढ़ा पूरा गंवई ठाट वाला मैं घुस आया था।  मुझे  उन्हें देखकर अटपटा लगता था या नहीं यह मैं नहीं जानता लेकिन मुझे बहुत अटपटा लगता था।

मैं एक जगह कॉरिडोर में बैठा, सिगरेट पीता रहता था। जब सिगरेट न होती, तो बीड़ी। सबसे दूर सबसे अलग। उपेक्षित। तिरस्कृत।  उस समय खुद को ऐसा ही महसूस करता था। मैंने एक लड़की को एक कार्ड पर कविता लिखी थी - शायद कुछ ऐसा लिखा था कि होंठ सिल जाते हैं, शब्द साथ नहीं देते, शायद तुम समझ सकती हो कि कुछ न कह पाने का दुख कितना बड़ा होता है। दूसरे दिन लड़की ने मुझसे आंखें चुराना शुरू कर दिया था। मुझे उस समय बहुत क्रोध आता, दुख होता। अंदर एक पीड़ा की नदी धीरे-धीरे  बहती रहती, कुछ हृदय के पास पिघलता हुआ लगता था, और मैं अपना होश खो बैठता था।

उस समय जब कहीं कोई नहीं था। घर में मां और पिता से जितनी बातें होती रही हैं मेरी वह किसी एक ऐसे अजनबी से होती हैं जो कहीं से मजबूरीबश एक साथ रह रहे होते हैं। कॉलेज में कोई ऐसा नहीं जिसके सामने मैं रो सकता। 

उसी दौरान मैंने दुख और गुस्से में कविताएं लिखनी शुरू की थीं। कई बार ऐसा भी होता कि मैं हर सुबह आता और बोर्ड पर एक कविता लिख लेता। और चुपचाप निकल आता। मैं यह भी नहीं लिखता कि ये कविता किसकी लिखी है। सबलोग पढ़ते। कुछ लोग समझते- कुछ लोग नहीं समझते। वह लड़की तो समझती ही थी। लेकिन उसे किसी और लड़के से प्यार था।

मेरे अंदर प्यार जैसी कोई चीज थी या नहीं, मैं यह नहीं कह सकता। लेकिन जब भी उस लड़की को देखता था मेरे अंदर कुछ पिघलना शुरू करता था, और मैं खुद को सम्हालने की स्थिति में नहीं रह पाता था।

एक दिन कक्षा की बोर्ड पर एक कविता और लिखी और  पता नहीं क्यों इतना गुस्सा आया कि मैंने मुक्के से से जोर से बोर्ड पर प्रहार किया। मुढे इल्म नहीं था कि बोर्ड कांच का बना था और मेरे एक ही प्रहार से चूर-चूर होकर फर्श पर बिखर जाएगा। कक्षा के सभी लोग सकते में आ गए। बोर्ड के टूटने पर एक बॉन के फूटने की तरह आवाज हुई थी। मेरे हाथों से रक्त बह रहा था और मैं कुछ बुदबुदाते हुए कक्षा से बाहर निकल गया।

ऐसी कई घटनाएं हैं जो बीच-बीच में याद आ जाती हैं, कई बार हम उनपर हंसते हैं, दुखी होते हैं, लज्जित होते हैं। कई बार सोचते हैं कि वह समय अगर फिर से हमारे हिस्से में आ जाए तो उसे हम ठीक कर ले सकते थे। लेकिन ऐसा संभव नहीं है।

जिस दिन कक्षा का बोर्ड तोड़ा था, उस दिन पहली बार मैने पान पराग खायी थी। और चुप-चाप घर चला आया था। मैने सोच लिया था कि अब मुझे कॉलेज से निकाल दिया जाएगा, लेकिन मेरे दोस्तों ने झूठ बोलकर मुझे बचाया।

मुझे हमेशा ही ऐसे दोस्तों का कृतज्ञ होना चाहिए। उनमें से कई लोगों से अब संपर्क भी नहीं है, लेकिन जब भी यह घटना  याद आती है तब सीमा विजय, सायन्तनी, मनीषा, निखिलेश, रामविनोद आदि दोस्त याद आ जाते हैं।

रामविनोद के पास हमेशा ही बीड़ी मिल जाती थी। उस दिन या जब भी मैं बहुत उत्तेजित हुआ, वह मेरे साथ रहा। और बीड़ी पिलायी। एक दिन बहुत हैरान परेशान हालत में मैंने हिन्दू होस्टल में शराब भी पी।

आज जब बीड़ी पी रहा था तो पूरा एक जीवन मेरे सामने से गुजर गया। उन दिनों की लिखी कविताएं लाख कोशिश करने पर भी याद नहीं आयीं।  लेकिन कविता की शक्ल में वह लड़की जरूर याद आयी जिसके लिए मैंने कविताएं लिखनी शुरू की थीं......। 

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