Monday, October 1, 2012

एक गुमनाम लेखक की डायरी - 27

आज का दिन नील कमल  के साथ बीता। बहुत दिनों से सोच रहा था कि बंगाल के गांव में जाऊं , लेकिन आज जाकर मौका मिला। इसके पहले ट्रेन से आते-जाते गांव की छवि को देख लेते थे। लेकिन आज धान के खेतों, दिवाल पर लगे उपलों, भेड़ बकरियों को, गायों को करीब से देखा। को -ऑपरेटिव के मैनेजर भले आदमी थे, उन्होने एक गाड़ी की व्यवस्था कर रखी थी। 

हम बहुत देर तक गाड़ी में यहां वहां भटकते रहे। एक मंदिर भी गए। साथ वाले आदमी ने बताया कि यह बहुत पुराना मंदिर है, दखिणेश्वर मंदिर से भी पुराना। हमने मां काली को प्रणाम किया, फोटो खींचे और मंदिर की दान पेटी में कुछ रूपए डालकर चले आए।

भारत का हर गांव मुझे एक ही तरह का लगता है- यह गांव भी ऐसा ही लगा। बिहार के गांवों में हरियाली कम है -यहां हरे रंग ज्यादा हैं - पूरा सबूज। हमने लंबे-लंबे खेत देखे। मिट्टी के घर के सामने पक्के के मकान भी देखे और फूस की झोपड़ियां भी देखीं जिसे टाली से छाया गया था। 

अंग्रेजों ने सबसे पहली राजधानी कोलकाता को बनाया था- तीन गांव को मिलाकार कोलकता की स्थापना हुई थी। यह गांव कोलकाता से बहुत दूर नहीं है, इसलिए इसे धूर देहात तो नहीं ही कह सकते, लेकिन गांव में अब भी गरीबी और गंदगी मौजूद है, इसके कई प्रमाण हमें मिले। कोलकाता में रहते हुए आप बंगाल के गांवों को नहीं समझ सकते। कोलकाता में रहने वाले लोगों का रहन-सहन, सोच-विचार बिल्कुल अलग है, इसमें शहरी रंग हैं। लेकिन गांव में अभाव और गरीबी भले हो, लोगों के चेहरों पर अब भी गंवई संस्कार आपको मिल जाएंगे। मैंने नील कमल से कहा - ये देखिए ये गांव तो बिल्कुल मेरे गांव जैसा लग रहा है। घर की दीवारों पर उपले सूखते हुए। खूंटे से बंधी गायें। सड़क पर बेपरवाह धूमती बकरियां। हां, बैल गाड़ी को अब बैल या भैंसे नहीं खींचते  -  उसकी जगह मशीन ने ले ली है। यह अब लगभग भारत के हर गांव में हो गया है।

एक बात और नोट करने लायक है जिसकी आशा मुझे नहीं थी। वह कि एक गांव में संभ्रांत लोगों की बस्तियों से अलग कुछ बस्तियां ऐसी भी देखीं जिनमें रहने वाले लोगों के रंग स्याह थे और वह बस्ती गंदगी से भरी हुई थी। हमने अपने गांव की मुसहर बस्तियों से इसकी तुलना की। मैंने कहा नील कमल से कि यह क्या है। मैं तो सोचता था कि बंगाल  जो नवजागरण हो चुका है, उसका असर गांवों में तो होना ही चाहिए, लेकिन बंगाल के गांव में भी मुझे विषमता और असमानता की झलक मिली। 

मैं वहां किसी ऐसे घर में जाना चाहता था, जिस घर में रविन्द्र और राम मोहन राय की तस्वीर टंगी मिले। लेकिन यह अवसर नहीं आया। मैंने गाड़ी में चलते हुए घर की खिड़कियां झांकने की कोशिश की, लेकिन अंधेरे के सिवा कुछ और दिखायी न दिया।  

नील कमल ने कहा कि यह जो हरियाली आप देख रहे हैं इसको देखकर कोई भी भ्रम में पड़ जाएगा। ये लहलहाते हुए खेत बंगाल के गांवों की खुशहाली की सूचना देते हैं, लेकिन जब आप गांव के भीतर प्रवेश करते हैं तो आपको सदियों पुराने सामंती अवशेष मिलते हैं। अब उन अवशेषों पर राजनीति की रंगत चढ़ गई है। बंगाल में 35 साल के वाम शासन के बावजूद गांव की विषमता दूर नहीं हुई। ये तथाकथित वाम मार्क्स और तामाम प्रतिशील लोगों के नाम पर सिर्फ राजनीति करते रहे। 

मैं चुप था- और मेरे भीतर रविन्द्रनाथ का हाल में सुना हुआ एक गीत गूंज रहा था - आगुनेर परशमणि छुआओ प्राणे, ये जीवन पुण्य करो दहन दाने। मेरे भीतर कहीं कोई कह रहा था कि यह कब होगा कि यह जीवन जो हमें या हम सबको मिला है, वह पावन बनेगा...।

मैं लागातार सोच रहा था, रास्ते पर कार तेज रफ्तार में भागती जा रही थी और मेरे भीतर एक मौन भरता जा रहा था.. एक अंधेरा -जिससे निकलने के रास्ते की तलाश मुझे फिर से शुरू करनी थी।

......

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