Tuesday, August 13, 2013

एक गुमनाम लेखक की डायरी-39

किस दिन ऐसा जाता है कि मन उदास नहीं होता.. क्या यह मेरे साहित्य से जुड़ने के कारण है या फिर उसके कारण जो मैं करना चाहता हूं और अब तक नहीं कर पाया हूं।  अपनी लिखी एक कविता पढ़ता हूं और उदास हो जाता हूं - यह सोचकर चिढ़ भी होती है कि प्यारे क्या वकवास लिख दिया। ऐसी कविताएं लिखकर क्या साबित करना चाहते हो तुम खुद को।

कविता संग्रह एक देश और मेरे हुए लोग छपकर आने वाला है, माया मृग के लागातार संपर्क में हूं। बार-बार पूछता हुआ कि कवर पाइनल हुआ या नहीं। बार-बार सुनता हुआ कि आप चिंता न करें पाइनल होने पर आपको मैं मेल कर दूंगा। फिर-फिर कुछ देर बाद वही सवाल। मेरे अंदर इन सब चीजों के लिए धैर्य क्यों नहीं है।

यह जानते हुए कि कवर अब तक नहीं आया होगा ..मैं बार बार मेल के इनबॉक्स में जाकर उसे ढूंढ़ता हूं - इस किताब या पहले की भी आने वाली किताब के पहले मन बच्चे की तरह अस्थिर और अधैर्य क्यों हो जाता है।

नील कमल से बात हो रही थी - पहली किताब के बाद यह दूसरी किताब जल्दी आ रही है।
तीसरी और जल्दी आएगी - मैं कहता हूं।
वाह, यह हुई न धोनी की पारी - नील कमल उत्साहित हैं।

लेकिन मैं थोड़ा उदास हो जाता हूं - भाई किताब आनी महत्वपूर्ण नहीं है, यह भी हो कि यह लोगों को पसंद आए, लोग उसपर ढंग से बात करें। वरना तो किताब आती रहे और सेल्फों में सजती रहे, तो क्या मतलब है ऐसे और इस तरह किताबों के आने का।

हिन्दी आलोचना व्यक्तिगत पसंद और नापसंद के घेरे में कैद है भाई - ये नील कमल हैं।

मैं इस दुनिया में रहते हुए कई बार उदास हो जाता हूं। - मैं कहता हूं।

-आलोचना की स्वस्थ संस्कृति नहीं है हिन्दी में  जो है, वह जोड़ तोड़ ज्यादा है


-जी, वही.... इसलिए ही कई बार निराशा होती है... अब अपना कोई गुट नहीं.... अपने लोग भी कहां हैं इस दुनिया में जिधर आंख ठाकर देखें तो साहस मिले.....

लेकिन इन सबके बीच हम इस एक बात पर सहमत होते हैं कि हमें अपना काम करना है - बस वही है हमारे हाथ में। 

फिर भी उदासी है कि कम होने का नाम नहीं लेती।

Wednesday, August 7, 2013

एक गुमनाम लेखक की डायरी -38

कभी-कभी मन बेहद उदास हो जाता है। बारिश की फुहारें भी उदास कर जाती हैं। धूप का चटक रंग भी उदास कर जाता है। बारिश  में चलने वाली कोई एक हवा दूर-दराज के एक गांव में लेकर जाती है। मिट्टी और कींचड़ से सनी गलियां  और  उसमें खेलते बच्चे।  मैं उन्हीं कींचड़ भरी गलियों से निकलकर यहां आया हूं - यहां इतनी दूर इस शहर में जिसका नाम कोलकाता है। 
उदास होकर मन उन खेतों में भटकता है जो हल से जोते गए हैं और जिनमें बाबा खूब तेज चाल में चलते हुए बीज की छिटाई कर रहे हैं - मैं एक मेड़ पर खड़ा देखता हूं। 
तब के मन में अपना एक छोटा खेत होता है जिसमें मैं गेहूं के बीज डालता  मैं एक किसान हूं - जिसे अपने उस छोटे खेत में बीज को पौधे में तब्दील होते हुए देखना है - उसकी रखवाली करनी है।

सपने में एक मचान है जिसपर मैं अकेले बैठा खेत की रखवाली कर रहा हूं - एक कोई सुंदर लड़की मेरे लिए कपड़े में बांधकर कुछ रोटियां लेकर आई है - अपने गमछे से  अपना चेहरा पोंछता प्याज के साथ रोटियों के टुकड़े धीरे-धीरे खा रहा हूं।

मेरे सपने में कोई शहर नहीं है - शहर की बड़ी नौकरी नहीं है। कविता नहीं है - कहानी भी नहीं।   सपने में मेरा गांव है  और गांव के लोग हैं।

समय बदल गया है। गांव दूर  छूट गया है। लेकिन यह अजीब ही है कि सपने में जब भी खुद को देखता हूं तो गांव में ही देखता हूं। पूरी दुनिया में भटकने के बाद अंततः देखता हूं कि गांव के दुआर पर खड़े नाम के पेड़ के नीचे हूं। सुस्ता रहा हूं नीम के झरे हुए फूलों पर बैठकर - दुलारचन काका की सिनरैनी सुन रहा हूं, बुचुल भांट का किलांट सुन रहा हूं -जोसेफ मियां का पिस्टीन सुन रहा हूं।

सपने में बाबा हमेशा जिंदा रहते हैं - जिंदा और साबुत। दोनों बैल जिदा होते हैं - नाद पर भूसे खाती ललकी गाय भी साबुत और जिंदा मिलती है। यहां रोजमर्रा के जीवन में शहर का शोर है - धुआं है।

कितना अच्छा है कि उदासी खींचकर बहुत दूर एक गांव में ले जाती है - जो छूट गया मेरा अपना ही गांव है - और हर रात सपने में  कुद को गांव के चौपाल पर खड़ा पाता हूं।