Friday, June 27, 2014

एक गुमनाम लेखक की डायरी-41

अच्छा, अभी अंग्रजी में ऐसै कौन-कौन से युवा कवि हैं जिनकी कविताएं साहित्यिक पत्रिकाओं में छप रही हैं। सिर्फ अंग्रेजी ही नहीं विदेशी भाषाओं में या भारत के ही कई अन्य भाषाओं में। मैं नहीं जानता। सचमुच मैं नहीं जानता। और इस बात पर मुझे अपने पर बहुत कोफ्त भी है। मेरी अंग्रेजी उतनी अच्छी नहीं है - उतनी अच्छी तो बिल्कुल नहीं कि मैं अंग्रेजी में लिखी कविताओं को ठीक उसी तरह समझ पाऊं जैसा कि हिन्दी की कविताओं के साथ होता है।

लेकिन सच मानिए मेरे अंदर जानने की जिज्ञासा है। कई पुराने कवियों के अनुवाद हिन्दी में उपलब्ध हैं - उनमें से अदिकांश ऐसे हैं जिन्हें साहित्य का प्रतिष्ठित नोबल मिल चुका है। मैंने कई कविताएं इधऱ-उधऱ से पढ़ी हैं लेकिन हाल में अंग्रजी कविता या अन्य विदेशी कविता का युवा स्वर कैसा और क्या है - इसके बारे में मैं अनभिज्ञ हूं।

एक रचनाकार को न सिरफ अपनी भाषा बल्कि दूसरी भाषाओं में भी हो रही साहित्यिक हलचल की जानकारी तो होनी ही चाहिए। अगर मुझे यह जानकारी नहीं है तो मैं अपने को एक मुकम्मल रचाकार बनाने की दिशा में कैसे आगे बढूं।

इसलिए मैंने सोचा है कि मैं कहीं से भी कुछ भी कर के विदेशी भाषाओं के युवा कविता स्वर या अन्य भारतीय भाषाओं के युवा कविता स्वर के बारे में जानने की कोशिश करूंगा। मैं जानता हूं कि यह बिना अंग्रेजी जाने नहीं होगा लेकिन जितना भी अपने सीमित  अंग्रेजी ज्ञान की बदौलत समझ पाऊं - समझने की कोशिश करूंगा।

अपनी भाषा के कवच से बाहर निकले बिना शायद बड़ी कविता संभव नहीं। 

Thursday, June 26, 2014

एक गुमनाम लेखक की डायरी- 40

आज कविता को लेकर विजयेन्द्र जी से बात हुई। मैंने अपनी चिंताएं उनके सामने रखीं। कि मैं अपनी कविताओं से भयंकर तरीके से असंतुष्ट हूं। यह असंतोष इसलिए है कि वह कविता मैं नहीं लिख पा रहा हूं - जिसे लिखना चाहता हूं।
विजयेन्द्र जी ने कहा कि अपने पीछे के लेखन की तरफ मत देखो - आगे की ओर देखो। एक बात जो उन्होंने बहुत महत्वपूर्ण कही वह कि  अहंकार, आत्ममुग्धता और वैचारिक अनिश्चय कवि की आंतरिकता को खा जाते हैं।
मैं अगर अपनी बात कहूं तो लेखक के रूप में मेरे अंदर अहंकार तो हई नहीं, और इस तरह मैं आत्ममुग्ध भी नहीं। अब तीसरी बात वैचारिक अनिश्चय की है।  मैं किसी खास पार्टी या विचारधारा से नहीं जुड़ा। लेकिन बचपन से अब तक अपनी एक विचारधारा तो मैंने निर्मित कर ही ली है। उस विचारधारा को भले ही मैं कोई नाम न दे पाऊं - लेकिन वह अंदर कहीं है। आदमीयत को मैंने सबसे पहले रखा है - मेरे लिए जाति वंश सम्प्रदाय का कोई मोल नहीं है। मेरे लिए सबसे पहले आदमीयत की बात आती है ।

लेकिन मन कभी-कभी अनिश्चय के गर्त में चला जाता है। कि क्या मुझे किसी खास विचारधारा से जुड़ना चाहिए। लेखकों के जो संगठन हैं - उनमें मेरा विश्वास नहीं। कई तरह के जो लेखक संघ हैं उनमें भी ऐसे लोग भरे पड़े हैं जिनका लेखन से दूर-दूर तक कोई रिश्ता नहीं। 

तो ऐसे में एक निजस्व विचारधारा को लेकर साहित्य या कविता की दुनिया में सक्रिय रहना क्या बुरा है। यह विचारधारा भी समय के साथ परिवतित होती रहती है लेकिन मेरा दृढ़ मत है कि वह परिवर्तन भी समाज और मनुष्य के सरोकार से साकारात्मक तौर पर जुड़ा हो, तभी उसका कोई अर्थ है।

किसी भी समय में मनुष्य सबसे पहले है - चाहे कविता हो, विचारधारा हो या अन्य कोई और कला। सबार उपरे मानुष ताहार उपरे नाई।